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By Election 2022: उपचुनाव परिणामों का दूरगामी संदेश, संगरूर के चुनाव नतीजे ने बढ़ाई चिंता

By Election Result 2022 Sangrur Lok Sabha उत्तर प्रदेश में लोकसभा की दो और पंजाब में एक सीट समेत कई राज्यों की विधानसभा सीटों के लिए हाल ही में उपचुनाव करवाए गए थे जिनके परिणाम आ चुके हैं। इसमें उत्तर प्रदेश में चुनाव परिणाम भाजपा के अनुकूल ही रहे हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 28 Jun 2022 11:26 AM (IST)Updated: Tue, 28 Jun 2022 11:26 AM (IST)
By Election 2022: उपचुनाव परिणामों का दूरगामी संदेश, संगरूर के चुनाव नतीजे ने बढ़ाई चिंता
उपचुनाव परिणाम ने समाजवादी पार्टी को अपनी रणनीति पर नए सिरे से सोचने पर मजबूर किया है। फाइल

शिवानंद द्विवेदी। लोकसभा की तीन और विधानसभा की सात सीटों पर हुए उपचुनावों के परिणाम आ गए हैं। इनमें उत्तर प्रदेश की दो और पंजाब की एक लोकसभा सीट शामिल थी, वहीं दिल्ली, त्रिपुरा, आंध्र प्रदेश और झारखंड की सात विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव हुए। उत्तर प्रदेश एवं त्रिपुरा में भाजपा की सरकार है। सर्वाधिक सीटों पर उपचुनाव भी इन्हीं दोनों राज्यों में हुए। इन दोनों ही राज्यों के उपचुनावों में भाजपा को सफलता मिली है। उत्तर प्रदेश की दोनों लोकसभा सीटों तथा त्रिपुरा की चार में से तीन विधानसभा सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की है। अगले वर्ष त्रिपुरा में होने वाले विधानसभा चुनावों के दृष्टिकोण से यह भाजपा के लिए अच्छे संकेत देने वाला परिणाम है। आंध्र प्रदेश की भी एक विधानसभा सीट पर चुनाव हुआ था, जहां वाइएसआर कांग्रेस को जीत मिली है। वहीं दिल्ली की राजेंद्र नगर विधानसभा सीट आप की झोली में आई।

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लोकसभा उपचुनाव : इन उपचुनावों में लोगों की विशेष नजर उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटों आजमगढ़ और रामपुर को लेकर थी। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में ये दोनों ही सीटें समाजवादी पार्टी के हिस्से में आई थीं। ऐसी धारणा थी कि ये दोनों ही सीटें भाजपा के लिए आसान नहीं हैं। लेकिन उपचुनाव के परिणामों में इन दोनों सीटों पर भाजपा को मिली जीत ने इस धारणा को गलत साबित कर दिया। वैसे उपचुनावों के दृष्टिकोण से उत्तर प्रदेश में भाजपा की राह आसान नहीं रही है। वर्ष 2018 में जब गोरखपुर और फूलपुर जैसी भाजपा के लिए सुरक्षित मानी जाने वाली सीटों पर उपचुनाव हुए थे, तो पार्टी वहां हार गई थी। इस बार के परिणामों ने उपचुनावों को लेकर भी भाजपा के प्रति बनी हुई धारणाओं को बदला है। अब भाजपा हारी हुई सीटों पर भी उपचुनाव जीत सकती है।

आजमगढ़ की बात करें तो 2014 में यहां से मुलायम सिंह यादव लोकसभा के सदस्य चुने गए और 2019 में अखिलेश यादव सपा-बसपा गठबंधन के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में जीत कर आए। यानी मुलायम सिंह परिवार ने लगातार दो बार आजमगढ़ लोकसभा का प्रतिनिधित्व किया। इस आधार पर ही यह यह धारणा भी बनी कि यह सीट समाजवादी पार्टी परिवार का गढ़ है। शायद इसीलिए इस बार भी समाजवादी पार्टी ने यादव कुनबे के ही सदस्य धर्मेद यादव को चुनाव लड़ाया हो। लेकिन इस बार मामला पलट गया और भाजपा प्रत्याशी दिनेशलाल यादव निरहुआ ने धर्मेद्र यादव को पराजित कर दिया।

आजमगढ़ दलित, मुसलमान, यादव और अन्य जातियों के मतदाताओं का एक चतुष्कोणीय गुटबंदी वाली सीट है। यह किसी पार्टी की परंपरागत सीट कभी नहीं रही है। आजमगढ़ लोकसभा सीट परिस्थितियों के अनुसार अपना व्यवहार बदलती रही है। यह जानना आवश्यक है कि वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव में जब भाजपा को उत्तर प्रदेश में केवल 10 सीटों से संतोष करना पड़ा था, उस समय यह सीट भाजपा के खाते में गई थी। भाजपा के टिकट पर रमाकांत यादव 35 प्रतिशत वोट लेकर चुनाव जीते थे। वर्ष 2004 में वही रमाकांत यादव बसपा के टिकट पर आजमगढ़ से चुनाव जीते थे। वर्ष 2014 में एक बार फिर भाजपा ने रमाकांत यादव को टिकट दिया, लेकिन वे मुलायम सिंह यादव से चुनाव हार गए। वैसे दोनों के मतों के बीच अंतर केवल 6.5 प्रतिशत का था। वर्ष 2019 के चुनाव में अखिलेश यादव 59 प्रतिशत वोट सपा प्रत्याशी के नाते नहीं ला पाए, बल्कि सपा-बसपा के संयुक्त मत हस्तांतरण के कारण उन्हें इतने वोट मिले। भाजपा को 2019 में भी 35 प्रतिशत वोट आजमगढ़ में मिले थे। कहना काल्पनिक होगा, परंतु इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अगर 2019 में सपा-बसपा संयुक्त रूप से चुनाव नहीं लड़ते तो अखिलेश यादव के लिए भी राह कठिन थी। भाजपा का मतदाता एकजुट था और आज भी बना हुआ है। यही कारण है कि उपचुनाव के त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा सपा पर भारी पड़ी है।

आजमगढ़ को लेकर सपा के प्रति सहानुभूति रखने वालों का यह कहना कि बसपा ने गुड्डू जमाली को मैदान में उतारकर सपा का नुकसान किया है, यह तार्किक बात नहीं है। चुनाव मैदान में राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार उतारते ही हैं। चुनाव लड़ना उनका अधिकार है। आजमगढ़ उपचुनाव में बसपा पूरी मजबूती से लड़ी है। बसपा व सपा उम्मीदवार के बीच केवल 4.9 प्रतिशत वोटों का अंतर है। ऐसे में बसपा को ‘वोट कटवा’ की भूमिका में देखना तर्क से परे है।

वहीं दूसरी तरफ आजम खान का गढ़ मानी जाने वाली रामपुर सीट पर भी समाजवादी पार्टी को पराजय का सामना करना पड़ा है। वर्ष 2014 के चुनाव में यहां से भाजपा को जीत मिली थी। यह जानना रोचक है कि वर्ष 2014 में बसपा, सपा और कांग्रेस तीनों ने रामपुर सीट पर उम्मीदवार उतारकर लड़ाई को चतुष्कोणीय बना दिया था, तब भी भाजपा को जीत मिली थी। इस बार जब बसपा और कांग्रेस ने उम्मीदवार नहीं दिए तब भी भाजपा जीती है। वर्ष 2019 में भी सपा-बसपा के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में आजम महज 10 प्रतिशत के अंतर से चुनाव जीत पाए थे।

इन दोनों सीटों के चुनाव परिणामों का विश्लेषण अनेक नजरिये से हो सकता है। एक तथ्य विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि लोकतंत्र की गाड़ी राजनीति के परंपरागत उपकरणों से नहीं हांकी जा सकती है। वंशवाद के विरुद्ध जनता के मन में स्फूर्त भावना उत्पन्न हो रही है। इसलिए उसे राहुल गांधी के बजाय स्मृति ईरानी पसंद आते हैं। धर्मेद्र यादव के बजाय दिनेश लाल यादव को जनता चाहती है।

कांग्रेस, सपा और बसपा जैसे परिवार केंद्रित दलों की समस्या यह है कि वे ‘रेत में सिर धंसा कर अंधेरे की अनुभूति खुद भी कर रहे हैं और दूसरों से भी कराने पर तुले हैं।’ उपचुनावों के लिए हुए मतदान से पहले अग्निपथ योजना की घोषणा होने के बाद सपा और कांग्रेस जैसे दलों की जो प्रतिक्रिया थी, तथ्य उसके उलट हैं। अग्निपथ योजना में भर्ती के लिए भारतीय वायुसेना द्वारा पंजीकरण आरंभ करने के बाद देशभर से केवल तीन दिनों में 56 हजार से अधिक आवेदन आए। इसका अर्थ है कि युवाओं के बीच इस योजना का आकर्षण कायम है। परंतु इस योजना पर युवाओं के मन को टटोले बिना सपा-कांग्रेस ने जो भड़काऊ प्रतिक्रिया दी, वह उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को दर्शाता है। लोकतंत्र में जनता से संवाद, जनता के मन को समझने का अनुभव, इन विषयों पर सपा-कांग्रेस का नेतृत्व दिशाहीन स्थिति में है। यह दिशाहीनता ही उनकी राजनीतिक असफलता का सबसे बड़ा कारण है।

पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान के लोकसभा की सदस्यता को त्यागने से रिक्त हुई सीट संगरूर के लिए हुए उपचुनाव परिणाम चौंकाने वाले हैं। इस चुनाव परिणाम को ‘चौंकाने वाला’ कहने के पीछे दो समुचित कारण हैं। चूंकि अभी तीन माह पूर्व ही पंजाब में आम आदमी पार्टी बड़े बहुमत के साथ विधानसभा चुनाव में जीत कर आई है, मुख्यमंत्री बनने से पहले भगवंत मान इसी सीट से दो बार सांसद चुने गए थे। स्वाभाविक तौर पर ऐसा माना जा रहा था कि उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद खाली हुई संगरूर लोकसभा सीट आम आदमी पार्टी बचा लेगी। किंतु चुनाव परिणाम इसके उलट आ गए। आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार गुरमेल सिंह शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के उम्मीदवार सिमरन जीत सिंह मान से हार गए। इसी के साथ आम आदमी पार्टी की लोकसभा में उपस्थिति नदारद हो गई है।

इस चुनाव परिणाम का दूसरा पहलू चिंताजनक है। इसका विश्लेषण अलग-अलग नजरिये से हो भी रहा है। दरअसल जबसे पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है, तबसे राज्य में सुरक्षा और कानून-व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े हुए हैं। पंजाब की भगवंत मान सरकार द्वारा 250 से ज्यादा लोगों की सुरक्षा हटाने के तुरंत बाद गायक सिद्धू मूसेवाला की हत्या ने पंजाब की राजनीति में उबाल ला दिया। इसके बाद क्रमिक रूप से सामने आई अन्य घटनाओं की वजह से पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार की सुरक्षा नीति भी आलोचना के केंद्र में है। माना जा रहा है कि मूसेवाला की हत्या के बाद युवा तबके में आम आदमी पार्टी के गुस्से का परिणाम इस चुनाव में दिखा है। वैसे यह केवल एक कारण हो सकता है। इसके अलावा भी कुछ कारण हैं जो संगरूर में बदली हुई परिस्थिति के कारक तत्व हैं।

सुरक्षा की दृष्टि से पंजाब एक संवेदनशील राज्य है। चरमपंथी मान्यताओं के रुढ़िवादी ढांचे अभी भी पंजाब में राजनीति हस्तक्षेप रखते हैं। अपनी जीत के बाद शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के सांसद सिमरनजीत सिंह मान ने जो बयान दिया, वह पंजाब सहित देश के भविष्य के लिए चिंताजनक है। नवनिर्वाचित सांसद सिमरनजीत सिंह मान ने कहा, ‘यह हमारे कार्यकर्ताओं तथा संत जरनैल सिंह भिंडरावाले के तालीम की जीत है।’ इस वक्तव्य में चकित होने वाली बात नहीं है, परंतु चिंतित होने की बात अवश्य है। उल्लेखनीय है कि 1984 में जरनैल सिंह भिंडरावाले और उसके आतंकी साथियों से स्वर्ण मंदिर को मुक्त कराने के लिए सेना भेजने के विरोध में इन्हीं सिमरनजीत सिंह मान ने पुलिस अधिकारी की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था। अत: उनकी विचारधारा को लेकर किसी के मन में कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

इस चुनाव परिणाम की चर्चाओं में एक पक्ष यह भी उभर कर आ रहा है कि आम आदमी पार्टी संगरूर ‘हारी है’ या ‘हारने दी गई है।’ यह गौर करने वाली बात है कि संगरूर की हार से भगवंत मान का कद भले कमतर हो, परंतु अर¨वद केजरीवाल के कद पर इसका सीधा असर नहीं पड़ने वाला। दूसरी बात यह है कि केजरीवाल की राजनीति में ‘खालिस्तान’ के चरमपंथी विचारों का विरोध नहीं दिखा है। ऐसे में इस बात की संभावना भी है कि कहीं न कहीं पंजाब में अपने चरमपंथी समूहों के प्रति सहानुभूति वाली छवि की बदौलत पंजाब में मिली जीत के ‘रिटर्न गिफ्ट’ के तौर पर यह सीट आम आदमी पार्टी द्वारा दे दी गई हो। यह हार केजरीवाल की एक सीट भले कम कर रही है, परंतु पंजाब की राजनीति में फिलहाल उनका कोई नुकसान करती नहीं दिखाई दे रही। (शिद्वि)

[सीनियर फेलो, श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन]


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