प्रत्यारोपित किडनी का हाल बताएगी बोल्ड एमआरआइ तकनीक
पीजीआइ ने स्थापित की नई तकनीक, कुछ ही घंटों में प्रत्यारोपित किडनी की खराबी के कारण का पता चलेगा। बढे़गी प्रत्यारोपण की सफलता दर।
लखनऊ, जेएनएन। पीजीआइ के विशेषज्ञों ने एमआरआइ (मैग्नेटिक रेसोनेन्स इमेजिंग) की ऐसी तकनीक विकसित की है जिसमें प्रत्यारोपण के बाद किडनी फेल हो जाने के कारण का पता आसानी से मात्र दो से तीन घंटों में लगाया सकता है। इसके जरिए प्रत्यारोपण को सफल बनाने की सार्थक कोशिश की जा सकेगी। इस तकनीक का नाम बल्ड ऑक्सीजन लेवल डिपेंडेन्ट (बोल्ड) एमआरआइ है। इसके जरिए प्रत्यारोपित किडनी का खास तरीके से एमआरआइ और आर-2 मैपिंग कर कारण का पता लगाया जाता है।
विशेषज्ञों ने 40 किडनी ट्रांसप्लांट और 14 सामान्य लोगों पर परीक्षण करने के बाद इस खास तकनीक पर मुहर लगाई है। विशेषज्ञों ने बताया कि बोल्ड एमआरआइ के साथ ही इसमें किडनी बायोप्सी भी की गई। इसके बाद दोनों रिपोट्र्स का अध्ययन किया गया जिसमें वे दोनों एक समान पायी गईं।
दो तरह की पेशानी होती है प्रत्यारोपित किडनी में
गुर्दा रोग विशेषज्ञ प्रो. नारायण प्रसाद ने बताया कि प्रत्यारोपित किडनी एक्यूट रिजेक्शन और एक्यूट ट्यूबलर नेफ्रोसिस (एटीएन) के कारण कई बार काम नहीं करती है। यह परेशानी 30 फीसद किडनी ट्रांसप्लांट के मरीजों में देखी गई है। एक्यूट रिजेक्शन होने पर प्रत्यारोपित किडनी को शरीर स्वीकार नहीं करता है। ऐसे में कई बार इम्यूनो सप्रेसिव में बदलाव कर शरीर को प्रत्यारोपित किडनी स्वीकारने योग्य बनाया जाता है। एटीएन में कम ऑक्सीजन पूर्ति और इम्यूनोसप्रेसिव दवाओं के वितरीत प्रभाव के कारण प्रत्यारोपित किडनी के रीनल ट्यूब की एपीथीलियम सेल मरने लगती हैै। इससे किडनी खराब होने लगती है। ऐसे में दवा में बदलाव कर प्रत्यारोपित किडनी को बचाया जा सकता है।
क्या होगा मरीजों को फायदा
अभी तक कारण पता करने के लिए किडनी की बायोप्सी की जाती है जिसमें निडिल से किडनी का टुकड़ा लिया जाता है। अक्सर एक बार में टुकड़ा नहीं आता है। यह तकनीक नॉन इनवेसिव है। बायोप्सी की रिपोर्ट आने में तीन से चार दिन का समय लगता है, जबकि एमआरआई में एक से दो घंटे का समय लगता है।
इन्होंने स्थापित की तकनीक
रेडियोलॉजी विभाग के प्रो. हीरा लाल के नेतृत्व में डॉ. एजाज मोहम्मद, डॉ. नीलम सोनी, यूरोलाजी विभाग के डॉ. प्रियंक यादव, पैथोलॉजी विभाग के प्रो. मनोज जैन, गुर्दा रोग विशेषज्ञ प्रो. नारायण प्रसाद, प्रो. अनुपमा कौल, प्रो धर्मेंद्र भदौरिया और प्रो. अमित गुप्ता की टीम के शोध को इंडियन जर्नल ऑफ नेफ्रोलॉजी ने स्वीकार किया है।