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भगवती चरण वर्मा जयंती विशेष न कोई शहर, न मुहल्ला...फिर भी चिट्ठी सही पते पर पहुंच ही जाती थी

लखनऊ के भगवती चरण वर्मा जयंती आज लखनऊ के साहित्यकारों ने याद की पुरानी स्मृति।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Sun, 30 Aug 2020 06:00 AM (IST)Updated: Sun, 30 Aug 2020 06:41 AM (IST)
भगवती चरण वर्मा जयंती विशेष  न कोई शहर, न मुहल्ला...फिर भी चिट्ठी सही पते पर पहुंच ही जाती थी
भगवती चरण वर्मा जयंती विशेष न कोई शहर, न मुहल्ला...फिर भी चिट्ठी सही पते पर पहुंच ही जाती थी

लखनऊ [दुर्गा शर्मा]। तब चिट्ठी का चलन था। लोग भगवती बाबू को चिट्ठी लिखते थे, और पता दर्ज करते थे- चित्रलेखा के लेखक। न कोई शहर, न मुहल्ला...फिर भी चिट्ठी सही पते पर पहुंच ही जाती थी। यदा-कदा नहीं, ये रोज का सिलसिला होता। हर दिन चित्रलेखा के लेखक के नाम कई पत्र लिखे जाते और लेखक को वो सही-सलामत मिल भी जाते। पाप और पुण्य की पवित्र परिभाषा समझाकर शब्द-शिल्पी भगवती चरण वर्मा जी ने ये लोकप्रियता हासिल की थी। उनकी कृतियों में कल्पना के चित्र और यथार्थ का लेखा होता। उन्होंने कलम से समाज और रिश्तों की ऐसी तस्वीर उकेरी, जिसके रंग आज भी चटक हैं। सिर्फ उपन्यास नहीं, उन्होंने करीब हर विधा को बखूबी अपनाया। भगवती चरण वर्मा की जयंती पर आइए और करीब से जानते हैं, इंद्रधनुषी रंगों से सजे उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में...।

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विद्रोही सुर वाले बाबू जी

धीरेंद्र वर्मा

बाबू जी में एक ऐसा प्रबल आत्मविश्वास था जो अहंकार का भ्रम भी उत्पन्न कर सकता है, जिसे वे अपना अहम कहते थे। बात चाहे उनके साहित्य की हो या व्यक्तित्व की, बाबू जी में परंपराओं को तोड़ने की प्रवृति थी। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनमें उनका अहम या उनका विद्रोही स्वर दर्शित होता है, तमाम प्रसंगों में एक प्रसंग उल्लिखित करना चाहता हूं। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो देश के प्रथम सूचना मंत्री डॉ. बाल कृष्ण केसकर बने। डॉ. केसकर ने साहित्यकारों की एक सलाहकार समिति बनाई,  जिसमे सुमित्रानंदन पंत, पंडित नरेंद्र शर्मा और बाबू जी को सम्मिलित किया गया। इसी समिति ने आॅल इंडिया रेडियो का नाम आकाशवाणी रखा और एक मनोरंजन चैनल की स्थापना की गई, जिसका नाम विविध भारती  रखा गया।  जब नाटककार जगदीश चंद्र माथुर जो कि एक वरिष्ठ आइसीएस अधिकारी थे, सूचना विभाग के एक उच्च पद पर आसीन हुए तो उन्होंने इन तीन महाकवियों पर अपने पद का रौब  झाड़ना शुरू किया। जगदीश चंद्र स्वयं एक साहित्यकार थे और बाबू जी भी उन्हें एक साहित्यकार के रूप में ही देखते थे लेकिन जगदीश चंद्र इन कवियों के सामने साहित्यकार न होकर उच्च अधिकारी के रूप में पेश आने लगे। किसी के आगे उसके पद या ओहदे के कारण  झुकना बाबू जी के स्वभाव में नहीं था, जब एक अधिकारी और साहित्यकार के टकराव बढ़ने लगे तो बाबू जी थोड़ा असहज महसूस करने लगे। कुछ दिनों बाद लाल किले पर आयोजित होने वाले कवि सम्मलेन में बाबू जी को कविता सुनाने का आमंत्रण मिला, उस कवि सम्मलेन में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी उपस्थित थे। बाबू जी ने तालियों की अभूतपूर्व गड़गड़ाहट के बीच अपनी कविता पढ़ी। इस कविता की अंतिम पंक्तियां कुछ यूं है...

  • एक दर्द जो उठ पड़ता है कभी-कभी वो भूल है
  • सच तो ये हम नहीं जानते हार-जीत का अर्थ ही। 
  • वैसे वैभव और सफलता से हम को भी मोह है
  • क्या करें? किंतु हम कायल है धर्म और ईमान के 
  • हम को तो चलना आता है केवल सीना तान के। 
  • इस कविता को पढ़ने के बाद अगले दिन बाबू जी ने आकाशवाणी की सलाहकार समिति से इस्तीफा दे दिया।

 लेखक भगवती चरण वर्मा के पुत्र हैं।

लखनऊ ने उन्हें चुना

उदय प्रताप सिंह

मैंने बचपन में उनकी एक कविता पढ़ी थी- चूं चरर मरर चूं चरर मरर जा रही चली भैंसा गाड़ी... तब केवल ध्वन्यात्मक आनंद तक सीमित रहा था। पर बड़े होकर जब उस कविता को पढ़ा और समझा तो लगा कि कविता में सामाजिक क्रांति का घोषणा पत्र भी निहित है। बाद में मैंने चित्रलेखा से लेकर, भूले बिसरे चित्र और चाणक्य भी पढ़े और मुग्ध हुआ। वैसे वे पूरे देश और हिंदी जगत के गौरव के रूप में स्मरणीय रहेंगे। पर लखनऊ के सिरमौर लेखको में भी विशिष्ट मैं उनको इसलिए मानता हूं क्योंकि श्रीलाल शुक्ल जी, अमृतलाल नागर जी और यशपाल जी के समक्ष बाबूजी भगवतीचरण वर्मा इनमें उम्र के अलावा कृतित्व में भी बड़े थे। भगवती बाबू का जन्म उन्नाव में हुआ और उनकी शिक्षा और दीक्षा कानपुर एवं इलाहाबाद में हुई, उस समय कौन ये जानता था कि एक दिन भगवती बाबू लखनऊ को अपनी कर्मभूमि बना लेंगे। भारत के अधिकतर महानगर कलकत्ता, बंबई और दिल्ली में रहने के बाद उन्होंने लखनऊ को चुना या फिर ये कहें कि लखनऊ ने उन्हें चुना। नवजीवन के प्रधान संपादक का पद उन्होंने फिरोज गांधी के कहने पर संभाला था, लेकिन वो बहुत दिनों तक यह नौकरी नहीं कर सके । हां, इस अखबार की वजह से उन्हें लखनऊ में बस जाने का एक बहाना अवश्य मिल गया। हालांकि उनकी रचनाओं का कैनवास बहुत विस्तृत था तब भी भगवती बाबू की रचनाओं में लखनऊ का जिक्र आता रहता है, उनकी कहानी दो बांके तो लखनवी अंदाज का एक जीवंत उदाहरण है। भगवती बाबू अपनी प्रारंभिक अवस्था में लखनऊ में भले न रहे हों लेकिन उनकी भाषा और शैली देख कर कोई सोच भी नहीं सकता कि वो लखनऊ में नहीं रहे। मेरे विचार से भगवती बाबू के लखनऊ आने से पहले ही लखनऊ उनके कृतित्व में आ चुका था। ये मेरा सौभाग्य है कि मुझे उसी हिंदी संस्थान का अध्यक्ष पद संभालने का गौरव प्राप्त हुआ ( तब वह हिंदी समिति के नाम से जाना जाता था) जिसके अध्यक्ष भगवती बाबू रह चुके थे।

लेखक वरिष्ठ कवि एवं हिंदी संस्थान के पूर्व अध्यक्ष हैं।

साहित्य में परिलक्षित होता कवि हृदय

मनीष शुक्ल

भगवती बाबू के गद्य साहित्य की चकाचौंध में उनके कवि रूप की छवि कुछ मद्धिम पड़ गई और सामान्य जनमानस उन्हें एक कथाकार व उपन्यासकार के रूप में ही जानता रहा।भगवती बाबू मूलतः कवि ही थे।उनके कवि हृदय की बानगी उनके सहित्य में जगह-जगह परिलक्षित  होती है। क्या चित्रलेखा को पढ़ते हुए ऐसा नहीं लगता कि हम कोई गद्यात्मक कविता पढ़ रहे हैं। उसमें की गई सौंदर्य सृष्टि केवल एक कवि की आत्मा ही कर सकती है और जो भाव जगत का सृजन है वो एक संवेदनशील कवि हृदय द्वारा ही संभव है।

भगवती बाबू के सात कविता संग्रह प्रकाशित हुए  "मधुकण", "सविनय , एक नाराज कविता ", "रंगों से मोह", "प्रेम संगीत", "मानव", "मेरी कविताएं" और "एक दिन"। उनकी कुछ कविताएं बहुत प्रसिद्ध भी हुईं, जिनमें "भैंसा गाड़ी ", "हम दीवानों की क्या हस्ती"," मैं कब से ढूंढ रहा हूं अपने प्रकाश की रेखा" और "मातृ भू शत शत बार प्रणाम " उल्लेखनीय हैं। इन चारों  कविताओं में आपको उनके अलग अलग रंग दिखाई देंगे...

मैं कब से ढूंढ रहा हूं

अपने प्रकाश की रेखा

तम के तट पर अंकित है

निःसीम नियति का लेखा...।

दूसरी कविता...

हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहां कल वहां चले

मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहां चले...।

तीसरी कविता

चरमर- चरमर- चूं- चरर- मरर

जा रही चली भैंसागाड़ी !

अपनी जर्जर सी छाती में,

अपना जर्जर विश्वास लिए !

भर-भरकर फिर मिटने का स्वर,

कंप-कंप उठते जिसके स्तर-स्तर

हिलती-डुलती, हंफती-कंपती,

कुछ रुक-रुककर, कुछ सिहर-सिहर

चौथी कविता...मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम

तेरे उर में शायित गांधी, 'बुद्ध औ' राम

हिमगिरि-सा उन्नत तव मस्तक

तेरे चरण चूमता सागर

श्वासों में हैं वेद-ऋचाएं

वाणी में है गीता का स्वर।

लेखक मशहूर शायर हैं।

पटकथा लेखन का अनुभव बनी नाट्य रचनाओं की पृष्ठभूमि

गोपाल सिन्हा

50 के दशक के आरंभ के वर्षों में भगवती जी यहीं लखनऊ में अन्य दो महान साहित्यकारों अमृतलाल नागर और यशपाल के सानिध्य में विशेषकर नागर जी  की  रेडियो नाटकों में एवं रंगमंच पर उस समय अत्यंत सक्रियता  के फलस्वरुप, रेडियो और  रंगमंच की ओर आकर्षित हुए और अपने रचनाकर्म में नाटकों को भी जोड़ लिया। भगवती जी उससे पहले लंबे समय तक मुंबई में फिल्मों के पटकथा लेखक के रूप में सक्रिय रहे थे। आपने अनेक फिल्मों के लिए पटकथा लेखन किया जिनमें बॉम्बे टॉकीज की  छह-सात फिल्में, दिलीप कुमार की फिल्म "ज्वार भाटा" और अशोक कुमार की फिल्म "किस्मत" उल्लेखनीय है। संभवत: पटकथा लेखन का उनका वृहद अनुभव और इसके प्रति उनका रुझान ही उनकी नाट्य रचनाओं की पृष्ठभूमि में रहा होगा। उन्होंने अपनी प्रथम नाट्य रचना "तारा" के पश्चात दो और नाटकों "रुपया तुम्हें खा गया' और 'बुझता दीपक" की रचना की। "तारा" और "बुझता दीपक" रेडियो और मंच दोनों के लिए उपयुक्त नाटक है जबकि "रुपया तुम्हें खा गया" केवल  मंच के लिए । फिर उन्होंने मंच के लिए दो नाटक और लिखे "विजय यात्रा" और "दो कलाकार" लेकिन रेडियो के लिए उन्होंने अनेक नाटक लिखे गद्य और पद्य दोनों  में । नाटक "रुपया तुम्हें खा गया" 1957 में अमृतलाल नागर जी के निर्देशन में मंचित हुआ था और यह नाटक उस समय इसलिए चर्चा में आया था क्योंकि इसकी प्रस्तुति में नागर जी ने लखनऊ में पहली बार ट्रॉली स्टेज का इस्तेमाल किया था। उसके बाद राज सेठ के निर्देशन में एक संस्था द्वारा नाटक "दो कलाकार" खेला गया । फिर उप्र सूचना विभाग के नाट्य दल के लिए के बी चंद्रा साहब के अनुरोध पर भगवती चरण वर्मा जी ने नाटक "विजय यात्रा" लिखा जिसे चंद्रा साहब के निर्देशन में उक्त नाट्य दल द्वारा 1964 में  खेला गया। भगवती चरण वर्मा जी की दो कहानियों "मुगलों ने सल्तनत बख्श दी" और "दो बांके" के  नाट्य रूपांतरण  समय-समय मंचित होते रहे हैं । 1956 में "मुगलों ने सल्तनत बख्श दी" पर आधारित नाटक का मंचन उस समय डॉ. घनश्याम दास जी  द्वारा अपने निर्देशन में क्रिश्चियन  कॉलेज के हॉल में किया गया था। कहानी "दो बांके" पर आधारित नाट्य प्रस्तुति 2006 में हिंदी संस्थान के यशपाल सभागार में ललित सिंह पोखरिया के निर्देशन में मंचस्थ हुई थी । वर्मा जी की एक और कहानी 'वसीयत'  आपकी श्रेष्ठ कहानियों में से एक है और मंचन के लिए आपने इसका नाट्य रूपांतरण स्वयं किया था। लखनऊ रंगमंच पर 'वसीयत' का नवीनतम मंचन नाट्य संस्था संकेत के द्वारा स्वतंत्र काले के निर्देशन में संत गाडगे जी महाराज प्रेक्षाग्रह में सितंबर 2016 में किया गया । जैसा सर्व विदित है 'चित्रलेखा' उपन्यास पर दो बार फिल्में बन चुकी हैं, इसी नाम से । अगर हम लखनऊ रंगमंच की बात करें तो दो अवसरों पर "चित्रलेखा" का मंचन  हो चुका है : वर्ष 1978 -79 के लगभग समय की बात होगी जब आज के जाने-माने रंग अभिनेता और निर्देशक राजा अवस्थी, जो उस समय अपनी युवावस्था में रंगमंच पर काफी सक्रिय थे, के द्वारा 'चित्रलेखा' का नाट्य रूपांतरण किया गया। राजा अवस्थी अपने कुछ सहयोगियों के साथ वर्मा जी से इसके मंचन हेतु अनुमति लेने उनके घर पहुंचे तो वर्मा जी काफी अस्वस्थ थे लेकिन फिर भी पूरी जानकारी ली और बहुत खुशी और सहजता के साथ अनुमति  दे दी थी । तत्पश्चात् राजा अवस्थी के ही निर्देशन में इसको रवींद्रालय के मंच पर प्रस्तुत  किया गया और इसके तीन  दिन लगातार तीन प्रदर्शन हुए थे ।फिर अक्टूबर 2015 में युवा नाट्य निर्देशक आनंद प्रह्लाद कुमार ने अपने निर्देशन में 'चित्रलेखा' का मंचन बीएनए के थ्रस्ट थिएटर में किया था। भगवती जी ने यद्यपि मंच के लिए कम नाटक लिखे फिर भी इन नाटकों अथवा आपके उपन्यास/ कहानियों के नाट्य रूपांतरण जब भी मंचित हुए हैं, सफल और लोकप्रिय रहे।                            

लेखक वरिष्ठ रंगकर्मी हैं।

प्रेमचंदोत्तर उपन्यास काल के महत्वपूर्ण उपन्यासकार

पवन कुमार

हिंदी साहित्य में संपूर्ण उपन्यास काल को दो भागों में बांटकर देखा जाता है- पहला प्रेमचंदयुगीन उपन्यास और दूसरा प्रेमचंदोत्तर उपन्यास काल। प्रेमचंदोत्तर उपन्यास काल में भगवतीचरण वर्मा को ऐसा उपन्यासकार माना जाता है, जो प्रेमचंद की लेखन परंपरा के सर्वाधिक निकटस्थ हैं । भगवती जी का नाम साहित्य में इसलिए भी सम्मान के साथ लिया जाता है, क्योंकि उनकी रचनाएं किसी कालखंड विशेष का प्रतिनिधित्व न करके सर्वकालिकता का बोध कराती हैं। 'पतन' उनका पहला उपन्यास है जो उन्होंने अपने कॉलेज जीवन के दौरान लिखा था । 'चित्रलेखा' 1933 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के प्रकाशन के उपरांत वे श्रेष्ठ उपन्यासकारों की श्रेणी में आ गए। उनके अन्य उपन्यासों में उनकी अपूर्ण आत्मकथा ‘कहि ना जाये का कहिए’ का उल्लेख करना पड़ेगा। 1948 में प्रकाशित 'टेढ़े-मेढ़े रास्ते' उपन्यास हिंदी भाषा का प्रथम राजनीतिक उपन्यास माना जाता है । इस उपन्यास में आजादी के पूर्व और पश्चात् की परिस्थितियों का बेबाक वर्णन किया गया है । चूंकि वे भारतीय राष्ट्रीय अांदोलन से बेहद प्रभावित थे इसलिए भी उनके लेखन में तत्कालीन पस्थितियों और आजादी के बाद उभरी जनाकांक्षा के स्वरों को सहज रूप से अनुभव किया जा सकता है । ‘सीधी सच्ची बातें’ और ‘प्रश्न और मरीचिका’ भी ऐसे उपन्यास हैं जिनमें भगवतीचरण वर्मा ने अांदोलनकालीन परिस्थितियों से लेकर 1962 तक के भारत का वर्णन किया है । 1961 में प्रकाशित ‘भूले बिसरे चित्र’ उनका एक और महत्त्वपूर्ण उपन्यास है । यह पांच खंडों में प्रकाशित वृहद उपन्यास है जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया । उनका एक और लोकप्रिय उपन्यास 'रेखा' है जिसमें उन्होंने स्थापित परंपराओं और वर्जनाओं को तोड़ते हुए एक अनोखे विषय पर अपनी लेखनी चलाई। इस उपन्यास की नायिका अपनी उम्र से बड़े एक व्यक्ति से विवाह कर लेती है जिसके प्रति वह आत्मिक रूप से तो समर्पित रहती है किन्तु दैहिक रूप से वह संतुष्ट नहीं रहती । उनके उपन्यास भाषा और अपने विषय वैशिष्ट्य के लिए जाने जाते हैं। लेखक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं।

युवाओं की कमजोर नब्ज पहचानते थे

उनकी कहानियां उस युग की बुराइयों पर मार्मिक प्रहार करते हुए एक नए युग की ओर बढ़ने को प्रेरित करती है। भगवती बाबू ने ऐसे विषयों पर कलम चलाई जिन पर उस समय लिखना बेहद हिम्मत का कार्य था। वे उस समय के किशोरों और युवाओं की  मानसिकता के काफी नजदीक है, या यूं कहिये की उस काल के युवाओं की  कमजोर नब्ज पहचानते थे ।कुछ कहानियां तो ऐसी हैं कि पढ़ने वाला खुद ही उसमें शामिल हो जाए। कहानी पूरी किए बिना उसे बीच में रोक पाना नामुमकिन सा है। उनके द्वारा रचित " दो रातें", रेल में, इंस्टालमेंट, इत्यादि ऐसी अनेक कालजयी रचनाएं हैं जो अपने यथार्थ बोध एवं अपनी चेतना के कारण आज भी प्रासंगिक हैं। जहां पराजय और मृत्यु नामक कहानी जीवन की तरफ खींचती हैं, वहीं शस्त्र और चिंगारी उत्तरदायित्व के बोझ तले पिसती युवती की दास्तान को बखूबी दर्शाती है। इन कहानियों को पढ़कर लगता है जैसे हम अपने आस-पास की जीवित सच्चाई से गुजर रहे है।यही वजह है कि इन कहानियों का ऐतिहासिक महत्व सदा ही रहेगा। 

शालिनी, कथाकार


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