ऑडियो बुक्स ने बदल दी किताबों की शक्ल
क्या बिकता है, क्या छपता है सत्र में प्रकाशकों ने पाठकों को किताबों के प्रकाशन के पीछे की दुनिया की भी सैर कराई। युवा प्रकाशकों ने संवादी में दिखाया किताबों के प्रकाशन के पीछे का संसार, हिंदी में बढ़ रही पाठकों की संख्या, बेहतर कंटेट से जुड़ रहे अब युवा भी।
लखनऊ [अमित मिश्र] । याद कीजिए बचपन की वह रातें, जब रजाई में दुबक कर दादी-नानी की कहानियों के जरिए आप जादुई दुनिया में पहुंच जाते थे और कल्पना में कहानियों को साकार करते न जाने कब सपनों में खो जाते थे। कुछ बड़े हुए तो किताबों का दौर आया लेकिन, अब फिर वही किताबें शक्ल बदल कर कागज की बजाय मेगाबाइट में ऑडियो बुक्स के तौर पर आपके सामने है। खास बात यह कि ऑडियो बुक्स ने किताबों का बाजार छीना नहीं, बल्कि और बढ़ाया है।
संवादी के दूसरे दिन युवा प्रकाशकों ने किताबों के बदलते स्वरूप को दिलचस्प ढंग से सामने रखा तो संगीत नाटक अकादमी में मौजूद लोग भी सम्मोहित से सारी बातें सुनते चले गए। 'क्या बिकता है, क्या छपता है' सत्र में प्रकाशकों ने पाठकों को किताबों के प्रकाशन के पीछे की दुनिया की भी सैर कराई। सत्र के संचालक गिराराज किराडू ने जब ऑडियो बुक्स जैसे नये फॉर्मेट से किताबों के संसार पर असर पूछा तो प्रतिष्ठित कंपनियों से जुड़े युवा प्रकाशक अलिंद माहेश्वरी व प्रणव जौहरी और नये प्रकाशक शैलेश भारतवासी का जवाब संतोष देने वाला था।
प्रणव ने कहा कि ऑडियो बुक्स कागज वाली किताबों के लिए खतरा नहीं है, उल्टा यह तो लोगों को किताबों तक पहुंचने में मदद करती है। शैलेष ने किताबों से बचपन में ही बन जाने वाले रिश्ते का हवाला देते हुए कहा कि ऑडियो या डिजिटल बुक्स के अनुभव के बाद लोग प्रिंट भी खरीदते है। अलिंद का मानना था कि ऑडियो का वर्ग अलग है। जैसे वह गाने सुनते है, वैसे ही किताब भी सुनते है लेकिन, सुनने के बाद फिर प्रिंट की तरफ आ जाते है। जैसे-मंटो फिल्म देखने के बाद बड़ी संख्या में लोगों ने उनकी किताब भी खरीदी। संवादी में मौजूद लोगों में से जिज्ञासा उठी कि ऑडियो बुक्स में लोग नई किताबें ज्यादा पसंद कर रहे है या पुरानी तो गिराराज ने बताया कि मराठी में मृत्युंजय और हिंदी में राग दरबारी ज्यादा सुनी जा रही है। अन्य में भी लोग पुरानी किताबों का ही ऑडियो फॉर्मेट ज्यादा पसंद कर रहे है।
दोस्ती में तो नहीं छापते किताब
सवाल उठा कि प्रकाशक कोई किताब क्यों और कब छापते है। दोस्ती में किताब छाप देते है या कोई सेटिंग होती है या कोई और फार्मूला है। प्रणव ने अच्छी बिक्री की संभावना, समृद्ध सामग्री और समाज के कोनों में मौजूद लोगों के मुद्दों को चयन का फार्मूला बताया तो अलिंद ने इसके तीन पैमाने गिनाते हुए कहा कि संपादकीय टीम की मंजूरी के अलावा कभी-कभी प्रकाशक खुद किसी मुद्दे पर खबर तैयार कराते है तो कभी अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा के अनुवाद के तौर पर किताब तैयार की जाती है। अलिंद हंसते हुए बोले-दोस्तों की किताब छापेंगे तो आप तुरंत पकड़ लेंगे।
कहना मुश्किल, कितनी बिकेगी
अलिंद के मुताबिक छापने से पहले यह कहना मुश्किल होता है कि कोई किताब कितनी बिकेगी। कई बार अच्छी समझी जाने वाली किताबों को पाठक नहीं मिलते तो कई बार औसत किताबों पर अच्छा रिस्पांस मिलने के बाद छपाई की रणनीति बदलनी पड़ती है। प्रणव ने बताया कि बिक्री के अलावा किताबों से आमदनी के और रास्ते भी बन गए हैैं। जैसे शर्मिला इरोम की लिखी एक किताब के लैैंगवेज राइट्स कई भारतीय व विदेशी भाषाओं में बेचने से काम बन गया। प्रकाशकों ने बुक सेलर तक हिंदी किताब पहुंचाने को भी बड़ी चुनौती बताया।
नये लेखकों के लिए तो मुश्किल
क्या छपना चाहिए, के सवाल पर प्रकाशकों ने बिना झिझक यह सच स्वीकार किया कि जिसकी कई किताबें छप गईं या अन्य बड़े लेखकों की तो कमतर चीजें भी पूरे स्वागत के साथ छप जाती है, जबकि नये लेखकों को मुश्किल का सामना करना पड़ता है। उन्हें कई परीक्षणों और संदेह से गुजरना पड़ता है। इसके बाद ही किसी की पहली किताब बाजार में आ पाती है।
पहली बार में 1100 किताबें
सौ से दो सौ करोड़ रुपये के टर्नओवर वाले किताबों के बाजार में 50 करोड़ हिंदी पाठकों के सामने यूं तो किसी किताब की 10 हजार प्रतियां बिकना कुछ खास मायने नहीं रखता लेकिन, फिर भी किताब का पहला प्रिंट रन आमतौर पर 1100 किताबों का ही होता है। हां, जिन किताबों से उम्मीद ज्यादा होती है, वह पहली बार में ही 2200 से पांच हजार तक भी छप जाती हैैं। प्रणव व अलिंद दोनों का मानना था कि प्री-बुकिंग से भी किताब की बिक्री का सही अनुमान लगाना मुश्किल होता है। बात चली बेस्ट सेलर की तो तीनों युवा प्रकाशकों का मानना था कि जो किताब साल में 10 हजार से ज्यादा बिके, उसे बेस्ट सेलर में गिना जा सकता है। राग दरबारी और मधुशाला, ऐसी ही किताबें हैैं जो हर साल इससे ज्यादा बिकती चली आ रही हैं।
रिस्की है लेखकों को पैसा न देना
किताब बिकने से प्रकाशकों की तो सीधी कमाई होती है लेकिन लेखकों को भी समुचित पैसा मिलता है या नहीं। गिराराज के इस सवाल पर अलिंद ने कहा कि अब सोशल मीडिया के युग में लेखकों को पैसा न देना रिस्की है कि न जाने वह सोशल साइट्स पर क्या लिख कर पोस्ट कर दें। उनका भी कहना था कि किताब कितनी छपी कितनी बिकी, इसका पूरा हिसाब होता है। इसलिए लेखकों से रायल्टी छिपाई नहीं जा सकती।
महंगी क्यों हैं किताबें
संवादी में मौजूद लोगों ने समस्या बताई कि किताबें महंगी होने से लोग खरीद नहीं पा रहे तो प्रकाशकों ने सारे खर्च के साथ लेखकों को अच्छा पैसा देने के लिए इसे जरूरी बताया। किताब लिखने से क्या आजीविका चल सकती है, इस पर प्रकाशकों का कहना था कि अब कोई सोचे कि केवल कहानी या उपन्यास लिखकर घर चला लेगा तो यह मुश्किल है। हालांकि स्क्रिप्ट राइटिंग जैसी अन्य विधाओं में संभावना है।