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हाई कोर्ट ने पिछली सपा सरकार पर की तल्ख टिप्पणी, कहा- योगी सरकार का शासनादेश रद करना सही

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि परिस्थितियों को देखते हुए 23 दिसंबर 2016 का शिक्षण संस्थानों का प्रांतीयकरण करने का शासनादेश संदेहास्पद प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि चुनाव को देखते हुए कुछ लोगों अथवा संस्थानों को लाभ पहुंचाने के लिए शासनादेश जारी किया गया था।

By Umesh TiwariEdited By: Published: Tue, 15 Jun 2021 06:00 AM (IST)Updated: Tue, 15 Jun 2021 08:54 AM (IST)
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यूपी सरकार द्वारा वर्ष 2016 के एक शासनादेश को निरस्त करने को सही करार दिया है।

लखनऊ, जेएनएन। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा वर्ष 2016 के एक शासनादेश को निरस्त करने के फैसले को सही करार दिया है। कोर्ट ने पिछली सरकार के शासनादेश जारी करने को संदेहास्पद करार देते हुए तल्ख टिप्पणी भी की। कहा कि चुनाव को देखते हुए, यह महज कुछ लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए जारी किया गया लगता है। यह आदेश जस्टिस राजेश सिंह चैहान की एकल पीठ ने सुभाष कुमार व 78 अन्य समेत सैकड़ों अध्यापकों व कर्मचारियों की ओर से दाखिल अलग-अलग याचिकाओं को खारिज करते हुए पारित किया।

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याचियों का कहना था कि 23 दिसंबर, 2016 को राज्य सरकार ने सात शिक्षण संस्थानों का प्रांतीयकरण करने का शासनादेश जारी किया था। उस शासनादेश को प्रदेश में आई नई सरकार ने 13 फरवरी, 2018 को निरस्त कर दिया। याचीगण 23 दिसंबर, 2016 को प्रांतीयकरण किए गए संस्थानों के अध्यापक व द्वितीय तथा चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे। याचियों का कहना था कि एक निर्णय जो पिछली सरकार द्वारा लिया गया था और जिसे तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मंजूरी दी थी, उसे दूसरे राजनीतिक दल की सरकार बनने के कारण निरस्त किया गया जो उचित नहीं है।

याचिका का राज्य सरकार की ओर से विरोध करते हुए कहा गया कि किसी संस्थान के प्रांतीयकरण के लिए जो जरूरी प्रक्रिया आवश्यक होती हैं, उन्हें नहीं किया गया। कोर्ट ने दोनों पक्षों की बहस सुनने के पश्चात पारित अपने आदेश में कहा कि प्रांतीयकरण के पूर्व न तो पदों की संस्तुति की गई और न ही वित्तीय मंजूरी ली गई। कोर्ट ने आगे कहा कि आठ मार्च, 2017 को विभाग के प्रमुख सचिव ने नोटिंग कर के फाइल को विभाग के मंत्री के पास भेज दिया, विभाग के मंत्री ने उस पर हस्ताक्षर किया लेकिन कोई तारीख नहीं डाली। इसके बाद फाइल तत्कालीन मुख्यमंत्री के पास भेजी गई, उन्होंने भी अपने हस्ताक्षर तो किए लेकिन तारीख नहीं उल्लेखित की। पुन: प्रमुख सचिव ने अपने हस्ताक्षर बनाए और 14 मार्च, 2017 की तारीख डाली।

कोर्ट ने कहा कि तत्कालीन मुख्यमंत्री ने आठ मार्च, 2017 को अथवा 14 मार्च, 2017 को मंजूरी दी। कोर्ट ने कहा कि चार जनवरी, 2017 को प्रदेश में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर आचार संहिता लागू की जा चुकी थी। आठ मार्च, 2017 को मतदान का अंतिम चरण था और 11 मार्च, 2017 को मतों की गिनती हुई। यदि तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा दी गई मंजूरी की तारीख 14 मार्च, 2017 थी तो उस समय तक यह घोषित हो चुका था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री व उनकी पार्टी चुनाव हार चुकी है। कोर्ट ने कहा कि इसका अर्थ है उक्त मंजूरी विधानसभा चुनाव हारने के बाद दी गई। कोर्ट ने कहा कि इन परिस्थितियों को देखते हुए 23 दिसंबर, 2016 का उक्त शासनादेश संदेहास्पद प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि चुनाव को देखते हुए, कुछ लोगों अथवा संस्थानों को लाभ पहुंचाने के लिए उक्त शासनादेश जारी किया गया था।


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