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जाति से संबंधित एक अधिसूचना के संदर्भ में बीते दिनों सुर्खियों में रहा इलाहाबाद हाईकोर्ट

OBC News तो क्या मान लिया जाए कि इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा सभी अधिसूचनाएं रद होने के बाद 17 जातियों पर राजनीति का यह सिलसिला खत्म हो जाएगा? कोर्ट ने अधिसूचनाएं रद की हैं तो क्या हुआ राजनीति दूसरे दरवाजों की ओर देखेगी।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 05 Sep 2022 04:40 PM (IST)Updated: Mon, 05 Sep 2022 04:40 PM (IST)
जाति से संबंधित एक अधिसूचना के संदर्भ में बीते दिनों सुर्खियों में रहा इलाहाबाद हाईकोर्ट। फाइल

लखनऊ, हरिशंकर मिश्र। यह जानते हुए कि आगे रास्ता बंद है, फिर भी बार-बार उस पर जाने की कोशिश की जाए तो यकीन मानिए वहां सियासत का रास्ता खुलता होगा। उत्तर प्रदेश की राजनीति में 17 पिछड़ी जातियों की राजनीति को इसके उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। प्रदेश में अलगअलग राजनीतिक दलों की सरकारें यह जानती थीं कि इन्हें अनुसूचित जाति में शामिल करने के रास्ते आगे बंद हैं, फिर भी आगे बढ़ने में किसी को हिचक नहीं हुई। इन जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा केवल राज्य सरकार के प्रयास से न संभव था और न ही मिल पाया, लेकिन वोटों की सियासत के दरवाजे जरूर खुले।

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पिछले दिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की सभी अधिसूचनाओं को रद जरूर कर दिया है, लेकिन जातियों की राजनीति अभी इसके लिए और रास्ते बनाएगी जरूर। आरक्षण की लालसा आंखों पर पट्टी और जुबान को लगाम लगा देती है, अन्यथा उत्तर प्रदेश की 17 जातियां यह सवाल जरूर पूछतीं कि राजनीति की बिसात पर हर बार वही क्यों? हालांकि इस सवाल का जवाब ये जातियां भी जानती हैं और अब तो पूरी तरह साफ हो चुका है कि उन्हें पिछड़ी जातियों से निकालकर अनुसूचित जाति में शामिल के लिए अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकार ने यदि बार-बार अधिसूचना जारी की है तो केवल इसलिए कि आरक्षण का झुनझुना चुनाव में हमेशा ही जोर से बजता आया है। इन 17 जातियों के पास 13 प्रतिशत वोट हैं और इसीलिए वे चुनावी नजरिये से महत्वपूर्ण हैं। अधिसूचनाएं रद करने के साथ ही इलाहाबाद हाईकोर्ट की यह टिप्पणी गौर करने लायक है, ‘संवैधानिक अधिकार न होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में राजनीतिक लाभ के लिए बार-बार अनुसूचित जातियों की सूची में फेरबदल किया जा रहा था।'

ऐसा नहीं कि सरकार यह तथ्य नहीं जानती थी कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत अनुसूचित वर्ग की सूची में बदलाव का अधिकार केवल देश की संसद को है। खुद राज्य सरकार ने कोर्ट में दिए अपने हलफनामे में यह स्वीकार भी किया कि उसे ऐसी अधिसूचना जारी करने का अधिकार नहीं था। फिर भी ऐसा किया गया, क्योंकि चुनाव में ऐसे फैसले थोड़ी बढ़त देते हैं। उत्तर प्रदेश की सियासत हमेशा जातियों की हांडी में ही पकती रही है। इनमें 17 जातियां कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिंद, भर, राजभर, धीमान,

बाथम, तुरहा, गोड़िया, मांझी और मछुआ की लंबे समय से मांग रही है कि उन्हें पिछड़ों की सूची से हटाकर अनुसूचित जाति में शामिल कर दिया जाए। पूर्वांचल में ये जातियां विशेष रूप से प्रभावी हैं, इसी वजह से इनसे प्रलोभन का खेल भी शुरू हुआ। सबसे पहले 2005 में मुख्यमंत्री रहते हुए मुलायम सिंह यादव ने इन पर चारा फेंका और इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का निर्णय लिया। हालांकि इस फैसले पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी। इसके बाद मायावती सत्ता में आईं तो उन्होंने भी इन जातियों को अपने से जोड़ने की कोशिश की, लेकिन उनकी समस्या यह थी कि यदि ये 17 जातियां अनुसूचित जाति में शामिल हो जाएंगी तो उनके बेस वोट बैंक के आरक्षण में हिस्सेदारी हो जाएगी।

लिहाजा इन जातियों के आरक्षण के लिए उन्होंने केंद्र को पत्र लिखा, पर यह अनुशंसा भी की कि दलितों के आरक्षण का कोटा 21 से बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया जाए। ऐसा होना संभव न था और हुआ भी नहीं। आरक्षण का यह जिन्न हमेशा चुनाव के समय ही जिंदा होता रहा। अखिलेश यादव की सरकार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दिसंबर 2016 में दो अधिसूचनाएं जारी करके इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का फैसला किया। हाइकोर्ट से इस पर स्थगनादेश हुआ। भाजपा सत्ता में आई तो इस खेल में वह भी शामिल हुई और 24 जून, 2019 को योगी सरकार ने भी ऐसा ही निर्णय लिया। भाजपा की ही सरकार ने अब हाईकोर्ट में यह हलफनामा दिया है कि उसे इसका संवैधानिक अधिकार नहीं था। तो क्या मान लिया जाए कि इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा सभी अधिसूचनाएं रद होने के बाद 17 जातियों पर राजनीति का यह सिलसिला खत्म हो जाएगा? कोर्ट ने अधिसूचनाएं रद की हैं तो क्या हुआ राजनीति दूसरे दरवाजों की ओर देखेगी।

संभव है कि भाजपा सरकार नए रास्ते की ओर चले और उत्तराखंड माडल अपनाए। इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे दलित शोषित वेलफेयर सोसाइटी के अध्यक्ष संतराम प्रजापति बताते हैं कि उत्तराखंड में शिल्पकार जाति समूह को अनुसूचित जाति वर्ग का आरक्षण देने के लिए वहां की सरकार ने 1950 के संविधान आदेश को ही री-सर्कुलेट किया। भाजपा से गठबंधन करने वाली निषाद पार्टी सरकार पर ऐसा दबाव बनाएगी भी।

[वरिष्ठ समाचार संपादक]


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