जख्मी होता जैनियों का अहिंसा सिद्धान्त
बॉक्स में ::: लेखक सरदार पटेल महाविद्यालय मिर्चवारा (ललितपुर) के पूर्व प्राचार्य हैं। ::: सम
बॉक्स में
:::
लेखक सरदार पटेल महाविद्यालय मिर्चवारा (ललितपुर) के पूर्व प्राचार्य हैं।
:::
सम्पूर्ण जैन धर्म एवं दर्शन मुख्य रूप से 'अहिंसा सिद्धान्त' पर आधारित है, जिसमें मन, वचन और कर्म से भी दूसरों को कष्ट न पहुँचाने का एक आदर्श मानवीय लक्ष्य निर्धारित है। सुखद है कि उसका अनुयायी जैन समुदाय पिछली सदी तक अपने अहिंसा सिद्धान्त का निष्ठापूर्वक पालन करता आया है। यहाँ तक कि महात्मा गाँधी जैसे जैनेतर सन्त ने भी उससे प्रेरित होकर अहिंसा को ही अपना प्रभावी अस्त्र बनाकर भारत को विश्व की सबसे बड़ी ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी से आ़जादी दिलायी। उत्तर प्रदेश के एक छोर पर बसा छोटा-सा जनपद ललितपुर जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र है। महामुनि वर्णी जी, विद्यासागर जी और सुधासागर महाराज जैसे अनेक सिद्ध जैन मुनियों की यह कर्मस्थली रही है। जहाँ देवगढ़, सीरोनजी, पवागिरी, मदनपुर, बानपुर, गिरार, नवागढ़ जैसे अनेक प्रसिद्ध जैन मन्दिर एवं तीर्थस्थल मौजूद हैं। दूर-दूर से भारी संख्या में आने वाले दर्शनार्थी पर्यटक चारों ओर ललितपुर जैन तीर्थो की ख्याति बिखेरते हैं।
आत्ममुग्ध करने वाला तथ्य यह है कि 'ललितपुर न छोडि़ए जब तक मिले उधार' जैसी देशव्यापी लोकोक्तियाँ यहाँ के जैनियों की अहिंसाजन्य उदारता की ही देन है। ज्ञात हो कि यहाँ के अधिकांश ़गरीबों और ़जरूरतमन्दों की ़िजन्दगी आज भी जैनियों की कृपापूर्ण उधारी पर टिकी हैं। वे साल भर अपनी ़जरूरतें पूरी करने के लिए उनसे मनचाहा उधार लेते रहते हैं और ़फसल आने पर उसे ईमानदारी से अदा भी कर देते हैं। इस प्रकार यहाँ के जैन और जनता के बीच विश्वास और मिठास भरा यह अनूठा लेन-देन एक रोचक कहावत बनकर सम्पूर्ण भारत में जन-जन की जुबाँ पर मौजूद है। हिंसा और प्रतिहिंसा के नाजुक दौर में जैनियों की यह प्रशंसनीय विशेषता है कि वे अपने आदर्श अहिंसक चरित्र के चलते कभी किसी पर आक्रामक नहीं होते। बल्कि जब कभी मानव-सुलभ क्रोध आने पर वे जमीन में गड़ा पत्थर उखाड़ने के लिए ही प्रसिद्ध हैं। कभी हाथ में अस्त्र-शस्त्र लेकर किसी पर हमलावर नहीं होते। सौभाग्य यह कि जैनियों की इस सद्प्रवृत्ति से यह समूचा क्षेत्र लाभान्वित एवं सुरक्षित रह सका है। फलस्वरूप ललितपुर जैसे पिछड़े हुए जनपद में कभी कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हो पाया। इतिहास गवाह है 1984 के सिख दंगों में जहाँ सारा देश साम्प्रदायिक हिंसा की आग में झुलस रहा था, वहीं जैनियों की अहिंसा तले ललितपुर जनपद साम्प्रदायिक सौहार्द्र की अपनी अनूठी मिसाल पेश कर रहा था।
लेकिन पिछली सदी के अन्तिम दशक में चली भूमण्डलीकरण की आँधी ने सम्पूर्ण विश्व को अपनी चपेट में लिया और जैन समुदाय भी उससे अछूता नहीं रहा। विश्वव्यापी आतंकवाद और हिंसा की आँच जैन समुदाय तक भी पहँुची और जाने-अनजाने उसके अचेतन मन में हिंसक वृत्ति ने धीरे-धीरे अपनी पैठ बनाना शुरू की। अपने आसपास अन्य समाजों की हिंसक गतिविधियों को पहले उसने गौर से देखना शुरू किया, फिर उनमें रुचि लेना तथा बाद में उनमें स्वयं सहभागी बनना शुरू कर दिया। इस प्रकार जो जैन कभी महावीर स्वामी के सच्चे अनुयायी बनकर मन से भी किसी को कष्ट पहुँचाना पाप समझते थे, अब वे स्वयं हिंसक बनकर क्रूरतम कर्म करने लगे। जो कभी अपने हाथ में लाठी-डण्डा लेकर भी नहीं चले, इनमें से कुछ अब कन्धे व कमर में लाइसेन्सी राइफल व रिवाल्वर लटकाकर चलने में शान समझने लगे। मानव स्वभाव का यह अकाट्य सत्य है कि जब हथियार हाथ में होगा तो उसका उपयोग और दुरुपयोग भी कभी न कभी होगा ही। अफसोस कि अभी हाल ही में ललितपुर नगर के जैन समाज में हत्या एवं आत्महत्या का एक दोहरा हृदय विदारक प्रकरण सामने आया है। जनपद के एक प्रतिष्ठित समाजसेवी के युवा व्यापारी पुत्र आ़जाद जैन ने सरेशाम अपनी लाइसेन्सी रिवाल्वर से पहले अपनी पत्नी चंचल जैन को और बाद में स्वयं को गोली मारकर सभी को सकते में डाल दिया। पति ने उसी दिन ़िजला अस्पताल ले जाते समय तथा पत्नी ने अगले दिन मेडिकल कॉलिज, झाँसी में उपचार के दौरान दम तोड़ दिया। घटना का सबसे पीड़ादायी पहलू यह कि उनकी एक अबोध बेटी भी है जो मूक-बधिर व विकलांग है। बचपन में ही माता-पिता खोने के बाद उसके नसीब में चारों ओर अँधेरे ही अँधेरे, काँटे ही काँटे हैं। ज्ञात हो कि जैन समाज जैसे अमन चैन और शान्तिप्रिय समाज में यह कोई पहली घटना नहीं है। इसके पहले भी कई हिंसक घटनायें हुई हैं, जो जैनियों के अहिंसा सिद्धान्त को आहत करने वाली हैं। ऐसी घटनायें कुछ यक्ष प्रश्न हमारे सामने छोड़ती हैं, जिन पर गहन चिन्तन मनन की आवश्यकता है। हैरान करने वाला एक बड़ा प्रश्न यह कि जब ललितपुर दस्यु प्रभावित क्षेत्र था तब डकैत लोग जैनियों का अपहरण तो कर ले जाते थे और फिरौती लेकर उन्हें सकुशल छोड़ भी देते थे, उन्हें जान से नहीं मारते थे। लेकिन क्या कारण है कि जिन अहिंसक जैनों को हिंसक डकैतों ने भी नहीं मारा, उन्हें आज अपने स्वजन ही मारने पर क्यों उतारू हो जाते हैं? दूसरा गम्भीर प्रश्न यह कि जिन जैनियों के अन्तर्मन में महावीर स्वामी का अहिंसा सिद्धान्त इस कदर रचा-बसा हो कि वे अपने मन से भी किसी का बुरा सोचने पर मानसिक हिंसा मानते हों, मुँह से कोई अपशब्द निकलने पर ही वाचिक हिंसा तथा किसी पर हाथ उठने भर से कायिक हिंसा मानते हों, वही जैन समाज आज अपनों पर ही गोलियाँ बरसाने का दु:साहस कैसे कर रहे हैं? तीसरा प्रश्न यह कि प्राय: हरेक क्षेत्र में जैन समाज की साक्षरता एवं सम्पन्नता दर सबसे ऊँची है। प्रश्न उठता है कि हत्या और आत्महत्या जैसी घटनायें तो किसी अनपढ़ और विपन्न समाज में देखी-सुनी जा सकती हैं। जैन समाज जैसे सुशिक्षित एवं सम्पन्न समाज में ऐसी घटनायें आखिर क्यों जगह बना रही हैं? चौथा और अन्तिम प्रश्न यह कि सम्पूर्ण मानव समाज में भाईचारा और साम्प्रदायिक सौहार्द्र का ताना-बाना सुरक्षित रखने में जैन सम्प्रदाय के अहिंसा सिद्धान्त का बहुत बड़ा योगदान है। यदि जैनियों में ही यह वृत्ति इसी तरह उत्तरोत्तर बढ़ती गई तो फिर हमारे साम्प्रदायिक सद्भाव की विरासत सुरक्षित कैसे रह पायेगी? ये कुछ ज्वलन्त प्रश्न हैं जिन पर सर्वसमाज के, विशेष रूप से जैन समाज के प्रबुद्धजनों को मिल-बैठ कर गम्भीर चिन्तन मनन के साथ उनके उत्तर खोजना चाहिए। ताकि ऐसे दु:खद हादसों की पुनरावृत्ति फिर कभी न हो।
- डॉ. पूरन सिंह निरंजन