Lakhimpur Lok Sabha Seat: कभी कांग्रेस और सपा का गढ़ मानी जाती थी लखीमपुर सीट, ये वजहें दोनों दलों को ले आईं हाशिए पर
खीरी लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस और सपा के साथ कुछ ऐसे हालात बने कि 15 वर्ष से कांग्रेस और 20 वर्ष से समाजवादी पार्टी का कोई भी प्रत्याशी सांसद तक नहीं पहंच पाया। इन दोनों ही पार्टियों के गढ़ में इस समय भाजपा का कब्जा है। इसके पीछे दोनों दलों की गुटबाजी है जिससे मतदताओं का मन बदला। हालांकि दोनों ही पार्टियां जीत की हैट्रिक लगा चुकी हैं।
धर्मेश शुक्ला, जागरण लखीमपुर । खीरी लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस और सपा के साथ कुछ ऐसे हालात बने कि 15 वर्ष से कांग्रेस और 20 वर्ष से समाजवादी पार्टी का कोई भी प्रत्याशी सांसद तक नहीं पहंच पाया। इन दोनों ही पार्टियों के गढ़ में इस समय भाजपा का कब्जा है। इसके पीछे दोनों दलों की गुटबाजी है, जिससे मतदताओं का मन बदला। हालांकि, दोनों ही पार्टियां जीत की हैट्रिक लगा चुकी हैं।
इस बार भाजपा के पास हैट्रिक लगाने का मौका है। ये तो चुनाव परिणाम ही बताएगा कि बाजी कौन मारेगा। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने फिर से अजय कुमार मिश्र, ‘टेनी’, सपा ने पूर्व विधायक उत्कर्ष वर्मा ‘मधुर’ और बसपा ने अंशय सिंह कालरा को मैदान में उतारा है।
खाई इतनी चौड़ी हुई कि दल से दूर हो गए जितिन प्रसाद
अब तक हुए चुनावों में नौ बार संसद तक पहुंचने वाले कांग्रेस के राजनीतिक योद्धा 1989 के बाद थके हारे से होने लगे। 2000 के दशक के बाद कांग्रेस में गुटबाजी का दौर शुरू हुआ। लंबे अरसे तक हार का सामना करती रही कांग्रेस को वर्ष 2009 में गांधी परिवार के नजदीकी जफर अली नकवी ने ब्रेक दिलाया और वह खीरी सीट से चुनाव जीते।
इसी दौरान राहुल गांधी के कोर जोन में शामिल युवा नेता जितिन प्रसाद ने भी पहली बार बनी धौरहरा सीट पर जीत दर्ज की। इसी दौरान कांग्रेस में गुटबाजी का दौर भी शुरू हुआ। एक पूर्व जिलाध्यक्ष जितिन के खेमे में तो दूसरा नकवी की ओर जा पहुंचे। एक पार्टी के दो-दो प्रेसनोट भी जारी होने लगे।
गुटबाजी का ये आलम हो गया कि खुद को सच्चा कांग्रेसी साबित करने की होड़ तेज हो गई। कई बार तो लखनऊ से आए वरिष्ठ पदाधिकारियों के सामने ही कांग्रेस के दोनों गुट बांहे समेटते नजर आने लगे और हंगामा किया, इसका नतीजा ये रहा कि वर्ष 2014 के चुनाव में खीरी व धौरहरा दोनों ही सीटें पार्टी हार गई।
जितिन प्रसाद तो कांग्रेस को हाथ हिलाते हुए भाजपाई खेमे में आ गए हैं, यहां उनका कद भगवा रंग में और भी चटख हो गया। इस तरह कांग्रेस पिछले 15 वर्ष से मतदाताओं से दूर हो गई।
दल तो मिले, क्या दिल मिले? 13 मई को जवाब देंगे खीरी के मतदाता
अब बात करते हैं समाजवादी पार्टी की। खीरी को सपा का गढ़ कहा जाता था। सपा प्रत्याशी रवि प्रकाश वर्मा को वर्ष 2009 और 2014 में हार का सामना करना पड़ा। हारे हुए प्रत्याशी रवि प्रकाश वर्मा को 2014 में ही पार्टी ने राज्यसभा क्या भेजा क्षेत्रीय नेताओं में गुटबाजी शुरू हो गई। असंतोष ज्यादा तब बढ़ा जब वर्ष 2019 में पार्टी ने इनकी बेटी डा. पूर्वी वर्मा को टिकट दे दिया। वे भी चुनाव हार गईं।
पार्टी के इस रवैये से कार्यकर्ता बहुत ज्यादा आहत हुए। इसके बाद एक पूर्व एमएलसी ने पार्टी के अंदर गुटबाजी को हवा दी और पार्टी रवि वर्मा को साइड लाइन करने लगी। उन्हें कार्यक्रमों में भी नहीं बुलाया जाने लगा। इसी बिरादरी के उत्कर्ष वर्मा को पार्टी अहमियत देने लगी। राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का कार्यकर्ता सम्मेलन भी उत्कर्ष के कालेज में हुआ और यहां मान-मनौव्वल के बाद रवि वर्मा अनमने ढंग से कार्यक्रम में शामिल हुए।
जब रविप्रकाश को ये लगा टिकट नहीं मिलेगा तो उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया और अपने पुराने घर कांग्रेस में चले गए। इधर गठबंधन ने कुछ ऐसी गणित बनाई कि जिले से दोनों सीटें सपा की झोली में चली गईं। फिलवक्त एक खास बिरादरी बाहुल्य मतदाताओं के बल पर गठबंधन से सपा मजबूती से चुनाव लड़ रही है। दो दल मिलकर चुनाव लड़ने और जीतने का दंभ भर रहे हैं, लेकिन सवाल ये है कि दल तो मिल गए, क्या दिल भी मिल पाए?