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भोजपुरी के कबीर थे पं. धरीक्षण मिश्र

By Edited By: Published: Mon, 11 Apr 2011 07:59 PM (IST)Updated: Thu, 17 Nov 2011 03:16 PM (IST)

कुशीनगर:

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स्व. पं. धरीक्षण मिश्र लोक भाषा के एक महान साहित्यकार थे, जिनकी रचनाओं में अलंकार, छंद साम‌र्थ्य की व्यापकता एक गौरव की बात है। यही कारण है कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि के रूप में उनको साहित्यिक जगत में स्थान प्राप्त हुआ। इस नाते प्रख्यात साहित्यकार कवि को भोजपुरी का कबीर कहना नहीं भूलते। यूं तो समाज के सभी वर्ग व श्रेणियों पर उन्होंने अपनी रचनाएं लिखी हैं। लेकिन कवन दु:खे डोली में रोअत जालि कनियां तत्कालीन समाज की कुव्यवस्था पर एक लकीर खींच दिया। इसे साहित्यकारों में सबसे पहले धरीक्षण मिश्र ने रेखांकित किया। कुशीनगर जिले के तमकुही राज तहसील क्षेत्र के ग्राम बरियारपुर में चैत राम नवमी के दिन वर्ष 1901 में आचार्य पं. धरीक्षण मिश्र एक सम्पन्न परिवार में जन्म लिए। प्राथमिक व मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद इनकी कुशाग्र बुद्धि देख माता पिता ने वर्ष 1926 में हाई स्कूल की पढ़ाई हेतु लंदन मिशन स्कूल वाराणसी में दाखिला करवाया। पढ़ाई के बाद घर वापस आने पर इन्हें प्रशासनिक पद पर तैनात होने का भी अवसर मिला। जिसे त्याग कर वे गंवई परिवेश में अपने निजी भूमि पर लगाये गये वाटिका को पसंद किया तथा वहीं कुटिया बनाकर रहने लगे। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करते हुए उन्होंने भोजपुरी भाषा में लोक से जुड़ी कविताओं, सामाजिक विसंगतियों पर कलम चलाई। छूआ-छूत के घोर विरोधी रहे कविवर को समाज के अंतिम व्यक्ति के बारे में भी चिंतित होना पड़ा। चाहे कोई भी व्यक्ति हो बेधड़क सच्चाई बयान करना कवि की विशेष खूबियों में था।

वर्ष 1977 में शिव जी की खेती, 1995 में कागज के मदारी, 2004 में अलंकार दर्पण, 2005 में काव्य दर्पण, 2006 में काव्य मंजूषा के प्रकाशन के साथ ही उ.प्र. हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा 1980 में मिले सम्मान के साथ ही अंचल भारती सम्मान से राज्यपाल मोतीलाल बोरा द्वारा 1993, भोजपुरी रत्‍‌न अलंकरण द्वारा अखिल भारती भोजपुरी परिषद लखनऊ 1993 में प्राप्त हुआ। 1994 में श्रीमहावीर प्रसाद केडिया साहित्य एवं संस्कृति संस्थान देवरिया द्वारा श्री आनन्द सम्मान, 1994 में उ.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन उरई द्वारा गया प्रसाद शुक्ल सनेही पदक, 1995 में प्रथम विश्व भोजपुरी सम्मेलन देवरिया में पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्रशेखर द्वारा प्रथम सेतु सम्मान, 1997 में साहित्य आकादमी नई दिल्ली द्वारा भाषा सम्मान, विश्व भोजपुरी सम्मेलन नई दिल्ली द्वारा 2000 में मरणोपरांत भोजपुरी रत्‍‌न आदि सम्मान प्राप्त हुआ।

साधना के रूप में कविता करने के शौकीन इस कवि का व्यक्तित्व नितांत सादगी भरा था। इनकी विलक्षणता की ही देन है कि वर्तमान समय में गोरखपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में इतनी रचनाओं को लेकर भोजपुरी भाषा की भी पढ़ाई की शुरूआत की गयी है। इग्नू में भी इनकी रचनाएं पाठ्यक्रम के रूप में स्वीकार की जाने वाली है। कबीर की तरह विसंगतियों पर प्रहार करने वाले इस कवि ने 24-10-1997 कार्तिक कृष्ण नवमी को वरियारपुर स्थित अपनी कुटिया में महा प्रयाण किया और नास्तिक होते हुए भी मरते वक्त राम राम लिखते हुए अंतिम सांस ली।

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