फिटनेस बॉक्स : रेट बढ़ गया है, बाकी जैसी आपकी मर्जी... Kanpur News
शहर में मेडिकल संस्थानों और प्राइवेट अस्पतालों के पीछे की हकीकत पर नजर डालने वाली रिपोर्ट।
कानपुर। शहर की बदहाल स्वास्थ्य सेवाएं किसी से छिपी नहीं है, बड़े-बड़े चिकित्सकीय संसथान हैं। लेकिन, सभी जगह सुविधाओं के नाम पर सिर्फ दिखावा हो रहा है। कुछ बातें पटल तक नहीं पहुंच पाती हैं। स्वास्थ्य सेवाओं की कुछ ऐसी ही हकीकत पहुंचाने के लिए पढि़ए ऋषि दीक्षित का फिटनेस बॉक्स...।
सिर्फ नंबर बढ़ाओ
शहर के बड़े चिकित्सकीय संस्थान की देश-दुनिया में ख्याति है। यहां से डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाले छात्र-छात्राएं देश ही नहीं दुनिया के उत्कृष्ट संस्थानों में कार्यरत हैं लेकिन समय के साथ यहां की शैक्षणिक गुणवत्ता प्रभावित हुई है। यहां दाखिला लेने वाले छात्र-छात्राओं की पढ़ाई में रुचि कम हुई है तो चिकित्सकीय कार्यों से भी मन उचट रहा है। बिना बताएं कक्षाओं में से गायब रहना उनकी आदतों में शुमार होता जा रहा है। उन्हें रोक-टोक तक बर्दाश्त नहीं है। अगर उपस्थिति कम हुई या परीक्षा में फेल हो गए तो समझो विभाग प्रमुख ने ही गलती कर दी। धड़धड़ाते हुए संस्थान प्रमुख के पास पहुंच जाते हैं। अपनी गलती की जगह विभाग प्रमुख को जिम्मेदार ठहराते हैं। संस्था प्रमुख छात्र-छात्राओं को नसीहत देने के बजाय नंबर बढ़ाने का दबाव बनाती हैं। उनका यह तर्क समझ से परे है कि पढ़ाई तो करते हैं, सिर्फ नंबर ही बढ़ाना है।
जैसी आपकी मर्जी
स्वास्थ्य महकमे में नर्सिंगहोम के लाइसेंस बनाने और रिन्यूवल में अफसर खूब मनमानी कर रहे हैं। डॉक्टरों के पैनल, उससे जुड़े कागजात अधिकारी एवं कर्मचारी स्वयं तैयार कराते हैं। इसका नतीजा हे कि शहर के बाहरी क्षेत्रों में छोटे-छोटे घरों में नर्सिंगहोम खुल गए हैं। हर कागजात और उसकी औपचारिकता पूरी करने का रेट निर्धारित होने से भौतिक सत्यापन भी नहीं होता है। पहले जो लिपिक यहां तैनात थे, उनका स्थानांतरण अब मेडिकल कॉलेज में हो गया है। उन्होंने अभी तक किसी को नहीं बताया है कि वहां से हटा दिए गए हैं, हालांकि वहां से हटते ही उनका काम बढ़ गया है, दरअसल लंबे समय तक काम देखने की वजह से महारथ हासिल है, इसलिए अब दूसरों को परामर्श देते हैं। उन्हें यह बताने से नहीं चूकते हैं कि नए साहब के आते ही नए लाइसेंस बनवाने और पुराने के रिन्यूवल का रेट बढ़ गया है। बाकी जैसी आपकी मर्जी।
टिकते नहीं पांव
लंबे समय से जिला अस्पताल की व्यवस्था चरमराई हुई है। यहां डॉक्टर और कर्मचारियों के आने-जाने का कोई समय नहीं है। यहां न सुविधाएं और न संसाधन हैं। अस्पताल में पहले से उपलब्ध सुविधाएं एक-एक कर बंद हो रही हैं, इसकी वजह उनकी सही ढंग से निगरानी न होना है। इसका खामियाजा दूर-दराज से आए मरीजों को भुगतना पड़ता है। पहले अस्पताल के सर्वेसर्वा लखनऊ के रहने वाले थे। वह यदाकदा आते थे तो सिर्फ डीएम या वीडियो कांफ्रेंसिंग की बैठक में शामिल होने। जब सिर से ऊपर पानी चला गया तो उन्हें हटाना पड़ा। दूसरे साहब उनसे दो कदम आगे हैं। वह सप्ताह में दो दिन ही यहां आते हैं। उनके आने का संस्थान को लाभ नहीं मिला है। जरा-जरा से काम के लिए भी लोग परेशान होते हैं। इलाज के लिए आने वाले मरीज भी यह कहने लगे हैं कि साहब के तो यहां पैर नहीं टिकते हैं।
कागजों पर सुविधाएं
सरकार आमजन को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए हर साल भारी भरकम धनराशि खर्च करती है फिर भी, अस्पतालों में न दवाएं मिलती हैं और न ही जरूरी जांचें होती हैं। हद तो यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों में डॉक्टर जाते ही नहीं हैं। अस्पतालों से लेकर स्वास्थ्य कार्यक्रम एवं योजनाओं की निगरानी के लिए अधिकारियों एवं कर्मचारियों की भारी-भरकम फौज लगाई गई है फिर भी, सुदूर ग्रामीण क्षेत्र की जनता को कोई लाभ नहीं मिल रहा है। हद तो यह है सुविधाएं तथा संसाधन जुटाने के लिए केंद्रीय एवं राज्य स्तर से शुरू निगरानी और प्रोत्साहन की योजनाएं कागजी खानापूर्ति में उलझी हैं। जिन अस्पतालों में डिजिटल एक्सरे, अल्ट्रासाउंड, पैथालॉजिकल जांचों की सुविधाएं नहीं हैं और महिला अस्पताल में रेडियोलॉजिस्ट का पद नहीं हैं। वहां विशेषज्ञों की टीमें आकर कागजी औपचारिकता पूरी कर चली जाती हैं। उन अस्पतालों को कायाकल्प पुरस्कार से नवाजा जा रहा है।