कानपुर गंगा का किनारा... जहां भड़क उठी थी क्रांति की ज्वाला, बीच धारा में बना दी गई अंग्रेजों की कब्रगाह
अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल 04 जून को कानपुर में फूंका गया था जिसकी अब भी यादें आज भी मौजूद हैं। 27 जून को सत्तीचौरा घाट से मैस्कर घाट के बीच गंगा में कई अंग्रेजों की जलसमाधि बन गई थी।1857 के विद्रोह की कानपुर पटकथा को बता रहे हैं।
कानपुर, जागरण संवाददाता। गंगा के तट प्राचीनकाल से ही शहर की व्यापारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक थाती सहेजे हैं। आजादी की पहली क्रांति के भी ये गवाह हैं। तमाम गुमनाम क्रांति के नायकों ने सत्तीचौरा घाट से मैस्कर घाट तक अंग्रेजों को पस्त कर दिया था। इसके निशान ज्यादातर जगह अब मिट चुके हैं, लेकिन वह स्थल मौजूद हैं। कानपुर नगर, बुंदेलखंड के साथ आसपास के जिलों में अभी तक 1857 के विद्रोह की गवाही देते इन स्थलों के संरक्षण व युवाओं को यहां तक लाने की जरूरत है।
मेरठ में नौ मई, 1857 को चर्बी लगे कारतूस का इस्तेमाल करने से मना करने पर 85 सिपाहियों का कोर्ट मार्शल कर विक्टोरिया पार्क स्थित जेल में बंद करने पर 10 मई की शाम आते-आते विद्रोह भड़क उठा था। 11 मई तक उसकी चिंगारी कानपुर आ पहुंची थी, लेकिन अंदर ही अंदर रणनीति बनती रही। चार जून को कानपुर में विद्रोह का बिगुल फूंका गया था। तमाम विद्रोही सैनिकों ने अंग्रेजों के खजाने को लूटकर कई बंगलों में आग लगा दी थी। इसके बाद दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिया था। नाना साहब व उनके सहयोगियों के समझाने पर कल्याणपुर से वापस लौट आए थे और मोर्चे पर डट गए थे।
गंगा की बीच धारा में अंग्रेजों की बना दी कब्रगाह: छावनी क्षेत्र में अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा के लिए घेराबंदी (इंट्रेंसमेंट, जहां वर्तमान में आल सोल्स चर्च है) कर रखी थी। नाना साहब और अजीमुल्ला खां और उनकी फौज ने विद्रोही सैनिकों के साथ वहां घेराव कर लिया था। इसको 26 जून तक घेरे रखा था। फिर तत्कालीन जनरल एच व्हीलर के साथ समझौते में निर्णय हुआ कि अंग्रेज किला खाली कर देंगे तो उन्हें इलाहाबाद (अब प्रयागराज) जाने दिया जाएगा। नाना साहब के आदेश पर 27 जून की सुबह सत्तीचौरा घाट पर गंगा में 40 नावें लगाई गईं। इन नावों पर महिला, बच्चों, अंग्रेज सिपाहियों व अफसरों को भेजना था। सुबह अंग्रेज अपने परिवारों सहित नावों पर सवार हुए। सबसे बाद में नाव पर चढ़े मेजर बिब्राट ने नाविकों को चलने का इशारा किया, तभी घाट पर स्थित महादेव मंदिर से बिगुल बज उठा। कानपुरीयम के संयोजक इतिहासकार मनोज कपूर बताते हैं, स्टोरी आफ कानपुर में लिखा है कि बिगुल बजते ही नाविकों ने एक साथ गंगा में छलांग लगा दी। नावें धीरे-धीरे आगे बढ़ीं। इससे अंग्रेजो ने माना कि अब वह नानाजी के दायरे से बाहर हो गए हैं। फिर उन्होंने नाविकों पर गोली चला दी तो पलटवार में अंग्रेजों को सुरक्षित भेजने के लिए तैनात नाना के सैनिकों ने जवाबी फायरिंग कर गंगा की बीच धारा में उनकी कब्रगाह बना दी। सैनिक ऊपरी हिस्से में थे, इसलिए उनका निशाना सटीक बैठा। इसी बीच नाना साहब ने दूत भेजकर इसे रोकने को कहा था, क्योंकि यह सुनियोजित घटना नहीं थी। उनके निर्देश के बाद 73 अंग्रेज महिलाओं व बच्चों को बचाकर सवादा कोठी लाया गया था।
अंग्रेजों ने चलाई थी पहली गोली
वर्तमान में पनचक्की चौराहे के पास नहर किनारे नाना साहब का उसी दिन शाम को दरबार लगा। वहां सैनिकों की प्रशंसा की गई थी। उनकी वीरता के अनुसार उन्हें सम्मानित किया गया। मनोज कपूर बताते हैं कि इसी घटना में बचे माब्रेथ थामसन ने 1858 में कानपुर वापस लौटने पर अपनी पुस्तक लिखी थी। इसमें साफ किया था कि पहली गोली अंग्रेजों ने चलाई थी। इसके बाद सैनिकों ने आत्मरक्षा में गोली चलाई थी। इसलिए अंग्रेजों द्वारा यह प्रचारित करना की नानाराव साहब ने धोखा किया था, पूरी तरह गलत है।