कानपुर की रोटी वाली गली...बुझती थी पेट की आग, अब मिटती पैरों की 'ताप'
कानपुर वैसे तो अपने आपमे कई रंगों खानपान और बाजारों को समेटे हुए है। लेकिन कुछ ऐसी चीजें भी हैं जो समय के साथ अपना रूप बदलती गईं। उनमें से ही एक है कानपुर की रोटी वाली गली।
कानपुर, जागरण संवाददाता। मेस्टन रोड की रोटी वाली गली...नाम से आप अंदाजा लगाएंगे यहां रोटियां मिलती होंगी। खानपान का सामान बिकता होगा। होटल होंगे। तो जान लीजिए ऐसा ही था। देश की आजादी के दौरान यहां खुले होटलों में तवा रोटी, हथपई रोटी, रूमाली रोटी मिलती थी। हजारों लोगों के पेट की आग प्रतिदिन बुझती थी, जो अब गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। वर्तमान में रोटी वाली गली में खानपान के होटलों की जगह चप्पल बाजार ने ले ली है, जहां 350 दुकानें हैं। आसपास की गलियों को मिलाकर बड़ा चप्पल बाजार अस्तित्व में आ चुका है, जो अब गर्मी में पैरों की 'ताप' मिटा रहा है। शिवा अवस्थी की इस रिपोर्ट में जानिये अनोखे बाजार की कहानी।
घंटाघर से परेड की सड़क पर मूलगंज चौराहा से बड़ा चौराहा की ओर जाने के लिए मेस्टन रोड पर मुड़ते ही मूलगंज थाने के बाद बायें हाथ पर मिलती है रोटी वाली गली। चप्पल कारोबारी इरफान हाशमी बताते हैं, गली के मुहाने से लेकर अंदर तक वसीम भाई का गूंगा होटल, नाज और एवन जैसे नाम वाले एक दर्जन होटल आजादी के दौरान 1948 से 1950 के बीच खुले थे। मोहम्मद हनीफ, बिंदु भाई, बाबू भाई आदि ने यहां आना पाई से लेकर 10, 20 व 50 पैसे तक में रोटी बेची। यह बाजार सौहार्द और प्रेम का था। यहां हर वर्ग के लोग रोटी खाने आते थे। वर्ष 1990 से 1992 के बीच नई पीढ़ी के मनचले युवाओं के सड़क पर खड़े होकर खाना मंगाने, आए दिन झगड़ों और माल रोड आदि में नए होटल खुलने से यहां के ग्राहक उधर जाने लगे। इससे रोटी वाली गली में रोटियां मिलनी बंद हो गईं, लेकिन पेट के जुगाड़ के लिए होटलों के स्थान पर चप्पल की दुकानें खुल गईं। देखते-देखते दिल्ली, कानपुर में निर्मित बच्चों, महिलाओं व पुरुषों के लिए चप्पलों का बाजार खड़ा हो गया।
मोहम्मद शादाब बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों के साथ ही बुंदेलखंड, कानपुर के ग्रामीण क्षेत्रों व आसपास के कन्नौज, उन्नाव, औरैया, इटावा, कानपुर देहात, फतेहपुर, फर्रुखाबाद से व्यापारी प्रतिदिन खरीदारी करने पहुंचते हैं। अदनान कहते हैं, शहर के लोगों के साथ ही आसपास जिलों और दूसरे राज्यों से नयागंज, बिरहाना रोड, जनरलगंज, कलक्टरगंज, मूलगंज, हटिया आदि बाजारों में आने वाले व्यापारी इन होटलों में रुककर मनपसंद रोटियां खाते थे। धीरे-धीरे होटल बंद हुए तो चप्पल बाजार पनपा। उनके पूर्वजों ने दुकान शुरू की थी। 15 साल से वह दुकान पर बैठ रहे हैं। मोहम्मद अजहर कहते हैं, क्या दिन थे वो। पूर्वज बताते थे कि शाम को रोटी वाली गली में महफिलें सजती थीं। हर होटल में खाने की सामग्री बनने के दौरान महक भर जाती थी। दूर-दूर से लोग खिंचे चले आते थे। होटल कारोबार बंद हुआ तो एक के बाद एक दुकान खुलती गई और चप्पल का बड़ा बाजार खुल गया। अब प्रतिदिन बाजार हजारों खरीदारों से गुलजार रहता है। सुबह करीब 10 बजे से बाजार खुलना शुरू होता है और दोपहर तक दुकानों में चहल-पहल बढ़ जाती है। फिर रात तक खरीदार आते-जाते रहते हैं।
15 से लेकर 300 रुपये तक की चप्पल
रोटी वाली के चप्पल बाजार में कोई भी आइटम ब्रांडेंड नहीं है। सब दिल्ली व कानपुर निर्मित हैं। थोक में यहां पर माल आता है और आसपास जिलों के दुकानदार ले जाकर अपनी दुकानों में बेचते हैं। बच्चों के चप्पल 15 रुपये से शुरू होकर बड़ों तक के 300 रुपये में मिलते हैं। सबसे ज्यादा महिलायें खरीदारी करती हैं।
बिहार तक चप्पलों की आपूर्ति
कानपुर नगर के इस अनोखे चप्पल बाजार से बिहार के साथ ही उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के जिलों में माल भेजा जाता है। वहां से प्रतिमाह दर्जनों की संख्या में कारोबारी आते हैं। ये कारोबारी यहां से थोक में माल खरीदते हैं तो सस्ती दरों में चप्पल मिल जाती हैं। इसके बाद अपने शहरों में जाकर बेचते हैं। इसमें 20 से 30 प्रतिशत तक की कमाई कर लेते हैं।
बाजार पर एक नजर
350 छोटी-बड़ी दुकानें हैं चप्पल बिक्री की।
300 रुपये अधिकतम में मिल जाती मजबूत चप्पल।
400 कारोबारी इस बाजार से जुड़े हैं।
15000 लोगों को मिलता है रोजगार।
50 हजार लोग जुड़े हैं अप्रत्यक्ष रूप से।
04 लाख रुपये प्रतिदिन की खरीद-बिक्री।