सियासत के खेल में हांफ रही रेल
मजबूत रेलवे तंत्र, बेहतर सुविधाएं, सुरक्षा और संरक्षा आदि, बीते 20 वर्षो से रेल सुधार की दिशा में ये बातें गूंजती रहीं। लेकिन, ये सिर्फ बातें ही रह गई।
जेएनएन, कानपुर : मजबूत रेलवे तंत्र, बेहतर सुविधाएं, सुरक्षा और संरक्षा आदि, बीते 20 वर्षो से रेल सुधार की दिशा में ये बातें गूंजती रहीं। लेकिन, ये सिर्फ बातें ही रह गई। रेल सियासत की पटरी पर दौड़ती रही। वोट बैंक की राजनीति के चलते एक के बाद एक नई ट्रेनों की सौगात रेवड़ी की तरह बंटती रही। विभिन्न रेल मंत्रियों ने अपने क्षेत्रों को वाया कानपुर होते हुए दिल्ली तक नई ट्रेनें दी। ट्रेनों की संख्या तो बढ़ी, मगर उसके अनुपात में ट्रैक नहीं बढ़ाया गया। कानपुर के ट्रैक पर ट्रेनों का भार लगभग दोगुना हो गया है। इसका असर अब दिखाई दे रहा है। ट्रेनों घंटों लेट हैं। वहीं रेलवे में सुधारवादी योजनाएं भी वर्षो से पूरा होने का इंतजार कर रही हैं। कुछ योजनाएं अधर में हैं तो कुछ पर केवल बातें ही हो रही हैं। वोट बैंक के ट्रैक पर ट्रेनों की चाल पूरी तरह से फेल साबित हो गई। कानपुर ट्रैक का हाल
- 330 ट्रेनों का है भार
- 200 ट्रेनों की है क्षमता ट्रैक जहां का तहां
आंकड़ों के मुताबिक बीस साल पहले कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन से होकर लगभग 190 ट्रेनें गुजरती थीं जो बढ़कर 330 के आसपास पहुंच चुकी हैं। गर्मियों में समर स्पेशल के नाम पर 50 अतिरिक्त ट्रेनें चलाई जाती हैं और तब ट्रैक पर भार 380 ट्रेनों का हो जाता है। कानपुर क्षेत्र से रोजाना 80 से 100 मालगाड़ियां भी विभिन्न रूटों पर चलती हैं। ट्रेनों की संख्या भले ही दोगुनी हो गई हो, पर ट्रैक वृद्धि शून्य है। ऐसे में क्षमता के अधिक लोड होने का असर ट्रेनों की समयबद्धता पर पड़ता है। 224 ट्रेनों के एसी हुए खराब
सर्दियों के मौसम में कोहरे की वजह से हर साल गाड़ियां लेट होती रही हैं। कोहरे की मार के आगे रेलवे बेबस नजर आता है। इधर, दो-तीन सालों से एक नया ट्रेंड शुरू हो गया है, गर्मियों में एसी फेल होना। एसी फेल होने के बाद यात्रियों के हंगामे के चलते ट्रेनें लेट हो रही हैं। इस साल 10 जुलाई तक लगभग 224 ट्रेनों के एसी ऑन रिकार्ड फेल हुए जबकि ऑफ रिकार्ड यह संख्या तीन सौ के पार है। एक ट्रेन फंसती है तो उसके पीछे लगभग दर्जन भर ट्रेनें लेट हो जाती हैं। अधर में योजनाएं
-ट्रेनों की लेटलतीफी दूर करने के लिए पिछले वर्षो में तमाम योजनाएं बनाई गई, लेकिन अधिकांश पूरी नहीं हो सकीं।
-रेलवे ट्रैक को मालगाड़ियों के भार से मुक्त करने के लिए डेडिकेटेड फ्रेट कॉरीडोर का निर्माण चल रहा है। इसे अक्टूबर 2018 में पूरा होना है, लेकिन कानपुर क्षेत्र में सचेंडी और बिधनू की ओर अभी जमीन अधिग्रहण को लेकर ही विवाद है। ऐसे में योजना कब परवान चढ़ेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
-वर्षों की चर्चा के बाद इस बार पनकी से भाऊपुर के बीच तीसरी रेल लाइन बिछाने को मंजूरी मिली है। योजना पूरी कब होगी, इसका कोई अंदाजा अभी नहीं है।
-भीमसेन से सेंट्रल रेलवे स्टेशन तक एलीवेटेड टै्रक भी अभी तक कागजी योजना ही है।
-गोविंदपुरी को टर्मिनल रेलवे स्टेशन बनाए जाने की घोषणा है ताकि सेंट्रल स्टेशन का भार कम हो सके। योजना के तहत इलाहाबाद जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस को चंदारी होते हुए बाहर ही बाहर निकाल दिया जाएगा, लेकिन इस दिशा में भी कोई खास प्रगति दिखाई नहीं दे रही है। सुविधाओं का टोटा
एक ओर ट्रेनें लेट हैं, वहीं रेलवे स्टेशनों में यात्रियों की सुविधाओं का भी टोटा है। कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन को विश्वस्तरीय बनाने के लिए मास्टर प्लान तैयार किया गया है। यह प्लान पिछले दो वर्षो से लटका पड़ा है। मास्टर प्लान लागू न होने से सेंट्रल स्टेशन में सुरक्षा व सुविधाओं की बेहद कमी है। स्टेशन परिसर सभी ओर से खुला है। खानपान की बेहतर व्यवस्था नहीं है। यात्रियों के ठहरने का इंतजाम भी नहीं है। प्लेटफार्म पर बैठने के लिए सीटों की संख्या बेहद कम है। लिफ्ट और स्वचालित सीढि़यों की योजनाएं पास हैं, लेकिन पूरी नहीं हुई। राहत की बात
राहत की बात यह है कि दो दशकों के दौरान जो सबसे बड़ी कामयाबी मिली है, वह है ऑटोमेटिक सिग्नल प्रणाली। दिल्ली से लेकर चकेरी तक यह प्रणाली काम कर रही है, जिसकी वजह से अत्यधिक लोड होते हुए भी ट्रेनों के संचालन में कुछ राहत मिली है। पहले दो स्टेशनों के बीच केवल एक ट्रेन दौड़ती थी, लेकिन अब एक खंड में चार ट्रेनों के संचालन की व्यवस्था हो गई है। इससे ट्रेनों के एक स्टेशन पर फंसने की संभावना बेहद कम हो गई है। आंकड़ों की नजर में सेंट्रल रेलवे स्टेशन
- 117 मिनट - हर ट्रेन औसतन होती है लेट
- 10 - प्लेटफार्म
- 100000 - यात्री रोजाना करते हैं सफर