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Kargil Vijay Diwas Special: शहीद सतेंद्र की बात करते ही पिता की बूढ़ी बाजुओं में भर जाती है ऊर्जा

Kargil Vijay Diwas कारगिल युद्ध में दुश्मनों से लड़ते-लड़ते सत्येंद्र यादव बॉर्डर पार पहुंच गए थे और विस्फोट में शहीद हो गए थे।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Thu, 23 Jul 2020 05:32 PM (IST)Updated: Thu, 23 Jul 2020 05:32 PM (IST)
Kargil Vijay Diwas Special: शहीद सतेंद्र की बात करते ही पिता की बूढ़ी बाजुओं में भर जाती है ऊर्जा

कानपुर, जेएनएन। कारगिल युद्ध में दुश्मनों से लड़ते-लड़ते एक वीर सपूत अपनी टुकड़ी के साथ बॉर्डर पार कर जाता है। गोलियों की बौछार के बीच अपनी वीरता और शौर्य का परिचय देते हुए दुश्मन से मुकाबला करता है, तभी अचानक एक विस्फोट होता है और वो वीर जवान धरा पर गिर जाता है। शहादत का ये किस्सा है देहली सुजानपुर निवासी शहीद सतेंद्र यादव का। कुमाऊं रेजीमेंट में सिपाही सतेंद्र के पिता को अपने बेटे की शहादत पर गर्व है। चाचा के शौर्य से प्रेरित होकर उनके भतीजे भी सेना में जाना चाहते हैं।

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शहीद सतेंद्र के पिता 80 वर्षीय अयोध्या प्रसाद न तो ज्यादा कुछ समझ पाते हैं और न ही बता पाते हैं, लेकिन सतेंद्र का जिक्र होते ही मानो बूढ़ी बाजुओं में ऊर्जा भर जाती है। सीना तानकर गर्व से कहते हैं कि मेरा बेटा देश का सच्चा सपूत था। जरूरत पड़ी तो अपना बलिदान देने से पीछे नहीं हटा। दुश्मनों को घर में घुसकर मारा। बड़े भाई अर्जुन कहते हैं कि सतेंद्र को अक्षय कुमार की फिल्म सैनिक बहुत पसंद थी। यह संयोग ही है कि जिस तरह फिल्म में अक्षय कुमार बॉर्डर पार पहुंच गए थे। उसी तरह सतेंद्र भी सीमा पार चले गए थे, लेकिन वापस लौट न सके। इसी कारण भाई के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन भी नहीं कर सके।

सेना में जाना चाहते हैं भतीजे

शहीद सतेंद्र यादव के 21 वर्षीय भतीजे आयुष को चाचा की वीरता और शौर्य ने इतना प्रेरित किया कि उसने सैन्य अफसर बनने की ठान ली। इसके लिए वह जीतोड़ तैयारी में जुटा है। छोटा भाई आनंद, अभिषेक और आर्यन भी चाचा की तरह ही दुश्मनों के दांत खट्टे करना चाहते हैं।

ट्रेनिंग खत्म होते ही भेज दिया गया था बार्डर पर

शहीद सतेंद्र यादव कुमाऊं रेजीमेंट में सिपाही थे। सेना में उनका चयन 23 फरवरी 1998 को हुआ था। प्रशिक्षण खत्म होते ही कारगिल में भेज दिया गया। बड़े भाई अर्जुन के मुताबिक वह अक्सर मां से कहते थे कि छुट्टी लेकर आऊंगा। लड़ाई के दौरान बात नहीं करने दी जाती थी। 5 अप्रैल 1999 को पांच दिन के घर आए। उसके बाद मुलाकात नहीं हो सकी। 04 सितंबर को भाई की शहादत की सूचना आई।


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