अमेरिका, इजरायल, चीन, ऑस्ट्रेलिया की तकनीक के मुकाबले भारतीय ड्रोन कमजोर नहीं
ड्रोन के मामले में भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है। हम अमेरिका इजरायल और चीन जैसे देशों की टक्कर के ड्रोन विकसित कर रहे हैं। हालांकि इनके कंपोनेंट्स के लिए विदेश पर निर्भर रहना बड़ी समस्या है। इनके लिए घरेलू स्तर पर मैन्यूफैक्चरिंग बढ़ाने की जरूरत है।
प्रो. अभिषेक। ड्रोन तकनीक के मामले में देश में जानकारी और सूझबूझ की कमी नहीं है। यहां अच्छे डिजाइनर और प्रोग्रामर हैं। अमेरिका, इजरायल, चीन, ऑस्ट्रेलिया की तकनीक के मुकाबले भारतीय ड्रोन कमजोर नहीं हैं। पिछले दिनों अमेरिका में हुई प्रतियोगिता में आइआइटी कानपुर के बने ड्रोन ने तीन खिताब हासिल कर इसकी मिसाल पेश की थी।
ड्रोन के क्षेत्र में चीन ने बहुत तेजी से तरक्की की है। अमेरिका, इजरायल शुरू से ही आगे रहे हैं। अब भारत में भी इस ओर से तेजी से काम शुरू हुआ है। हालांकि यहां निवेश अपेक्षाकृत बहुत कम है, जो बड़ी बाधा है। एक बड़ी समस्या तकनीक के बाजार तक आने की है। प्रोटोटाइप से उसे वास्तविक धरातल तक लाने में कई चुनौतियां हैं। तकनीक के मामले में भारतीय विज्ञानी कमजोर नहीं हैं, लेकिन उपकरणों की उपलब्धता बड़ी समस्या है। यहां ड्रोन में इस्तेमाल के लिए मोटर, कैमरे, सेंसर बनाने वाली कंपनियां सीमित हैं। इसके लिए अन्य देशों पर निर्भरता है। चीन और ताइवान से कई उपकरण खरीदे जाते हैं। हमें ड्रोन के कंपोनेंट्स की मैन्यूफैक्चरिंग पर फोकस करने की जरूरत है।
ड्रोन का इस्तेमाल धीरे-धीरे बढ़ रहा है। डीजीसीए जरूरत के मुताबिक ड्रोन के संचालन की अनुमति दे रहा है। तेलंगाना में मेडिसिन फ्रॉम स्काई प्रोजेक्ट चल रहा है। इसके तहत ड्रोन के जरिये दवाओं की आपूर्ति की जाएगी। कई अन्य तरह के ट्रायल अन्य हिस्सों में चल रहे हैं। हर जगह मॉनीटरिंग आसान नहीं है, ऐसे में सरकार को अनुमति देने में सावधानी बरतनी पड़ती है।
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने ड्रोन के इस्तेमाल की तैयारी की है। सेना में और सर्विलांस के लिए भी इनका इस्तेमाल हो रहा है। नदियों, पाइप लाइन, खेत, पुल, बिल्डिंग आदि का सर्विलांस चल रहा है। जुलूस, परेड और कार्यक्रमों की निगरानी होती है। इन सबके लिए अच्छे कैमरे की जरूरत पड़ती है। देश में ऐसे कैमरे बहुत कम बन रहे हैं। स्कूल लेवल पर भी ड्रोन तकनीक शुरू करने की जरूरत है। रोबोटिक्स के अंतर्गत ड्रोन तकनीक की जानकारी दी जा सकती है। दिल्ली के कई स्कूलों में इसकी शुरुआत भी हो चुकी है। बच्चों में छोटे स्तर से ही इसकी जानकारी देने की जरूरत है। ड्रोन की टेक्नोलॉजी तेजी से बदलती है। ड्रोन की तकनीक में पिछले 10 साल में तेजी से बदलाव आया है।
मैं स्वयं कई ऑटो पायलट बोर्ड बदल चुका हूं। आप कुछ भी बनाएंगे, उसे अपडेट नहीं करेंगे तो दो-तीन साल में बहुत पीछे हो जाएंगे। इसकी तकनीक बहुत तेजी से बदलती है। ड्रोन पर जो भी काम कर रहे है, उन्हें नई तकनीक पर काम करने की जरूरत है। छोटे ड्रोन पर अपने यहां काम चल रहा है। ये सस्ते रहते हैं और इन्हें नियंत्रित करना आसान होता है। रडार से पकड़ में भी जल्दी नहीं आते हैं। ड्रोन के विकास के साथ-साथ एंटी ड्रोन विकसित करना भी जरूरी है। इस दिशा में भी देश में काम चल रहा है और मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए इसमें तेजी की दरकार है। सरकार की ओर से और सहयोग की जरूरत है। एंटी ड्रोन गन बन चुकी हैं। यह ड्रोन के जीपीएस और आरएफ सिग्नल को जाम करती है। इजरायल और अमेरिका ने इन पर बहुत काम किया है। ड्रोन की टेक्नोलॉजी जितनी तेजी से बदल रही है, उसे देखते हुए यह जरूरी है कि इसके कंपोनेंट देश में ही तैयार हों। आयात पर निर्भर रहकर हम पिछड़ जाएंगे। बाहर से उपकरण लाकर तेजी से अपग्रेड करना संभव नहीं हो सकता है।
ड्रोन के मामले में भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है। हम अमेरिका, इजरायल और चीन जैसे देशों की टक्कर के ड्रोन विकसित कर रहे हैं। हालांकि इनके कंपोनेंट्स के लिए विदेश पर निर्भर रहना बड़ी समस्या है। इनके लिए घरेलू स्तर पर मैन्यूफैक्चरिंग बढ़ाने की जरूरत है। घरेलू स्तर पर आपूर्ति ही हमें तेजी से आगे बढ़ने और अपग्रेड होने का मौका दे सकती है।
[एयरोस्पेस इंजीनियरिंग, आइआइटी कानपुर]