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Independence Day : स्वतंत्रता के लिए सब कुछ बलिदान करने वाली है कानपुर की धरती, इतिहास के पन्नों में दर्ज है इसकी शौर्यगाथा

1857 की क्रांति में अंग्रेजों के सामने खड़े रहकर किया कानपुर के सपूतों ने मुकाबला।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Sat, 15 Aug 2020 09:02 AM (IST)Updated: Sat, 15 Aug 2020 09:02 AM (IST)
Independence Day : स्वतंत्रता के लिए सब कुछ बलिदान करने वाली है कानपुर की धरती, इतिहास के पन्नों में दर्ज है इसकी शौर्यगाथा
Independence Day : स्वतंत्रता के लिए सब कुछ बलिदान करने वाली है कानपुर की धरती, इतिहास के पन्नों में दर्ज है इसकी शौर्यगाथा

कानपुर, जेएनएन। चोरी, डकैती, हत्या, फिरौती, छेड़छाड़ जैसी आपराधिक घटनाओं से कानपुर की छवि तो बिगड़ी, लेकिन जो इस शहर के इतिहास को जानते हैं वे प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर अब तक देश के लिए कानपुर के योगदान को नहीं भुला सकते। यहां की माटी में ही स्वाधीनता की अलख जगाने वाले नायब और बेशकीमती हीरों ने जन्म लिया, जिनकी अभिव्यक्ति और दूरदर्शिता ने समाज को परतंंत्रता का आइना दिखाया। यहां कला साहित्य, कविताओं के ऐसे धुरंधर रहे जिन्होंने वैचारिक क्रांति की न सिर्फ नींव रखी बल्कि अंग्रेजी हुकूमत के विरोध का साहस भरा। अंग्रेजों ने न जाने कितने देशभक्तों को फांसी दी, कितनों को जेल में ठूंसा, लेकिन आजादी की लड़ाई का कारवां कभी थमा नहीं।

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समय के साथ कानपुर का आर्थिक स्वरूप भी बदला। राजनीतिक खींचतान और अव्यवस्था के बीच पूरब के मैनचेस्टर में सायरन की आवाजें बंद हो गईं। सामाजिकता संकीर्ण हुई और अपराध ने जन्म लिया। फिल्मों, नाटक, वृत्तचित्रों ने कानपुर के चरित्र को और बदनाम किया। रही सही कसर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी। कुछ दिनों पहले हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे के आपराधिक दुस्साहस, एनकाउंटर और उज्जैन के महाकाल में 'मैं विकास दुबे कानपुर वाला'... जबरदस्त ट्रोल हुआ था। संजीत अपहरणकांड और अन्य मामलों ने भी शहर के प्रति लोगों की धारणा बदली। आइए स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर जानते हैं कानपुर के उस वास्तविक स्वरूप के बारे में जिससे आज तक आप रूबरू हुए ही नहीं।

साहित्य और रचनाओं का स्कूल था कानपुर

पीपीएन कॉलेज में ङ्क्षहदी के पूर्व विभागाध्यक्ष रहे प्रो. लक्ष्मीकांत पांडेय के मुताबिक कवि गया प्रसाद शुक्ल सनेही और गणेश शंकर विद्यार्थी में सिर्फ ङ्क्षहदी ही नहीं उर्दू और खड़ी बोली में रचनाएं प्रस्तुत करने की काबिलियत थी। असल में खड़ी बोली में कविताओं और साहित्य का उद्गम कानपुर से ही हुआ है। उस समय प्रकाशन हाउस, चौक, पी रोड और कई जगह बैठकें हुआ करतीं थी। आगरा, लखनऊ, बिजनौर, वाराणसी समेत अन्य जनपदों में कवि और साहित्यकार अपनी कविताओं और रचनाओं की प्रस्तुति देते थे। उस दौर में तमाम आलोचक थे। गुरु और शिष्य की परंपरा थी। सनेही जी, गणेश शंकर विद्यार्थी, रमाशंकर अवस्थी, रामराज गुप्त, अभिराम शर्मा, छैल बिहारी दीक्षित आदि ने लोगों के दिलों में अमिट छाप छोड़ी। अभिराम शर्मा और छैल बिहारी दीक्षित को जेल तक जाना पड़ा था। अंग्रेजी सरकार ने मुंशी प्रेमचंद की सोजे वतन को प्रतिबंधित किया तो दयानारायण निगम ने उसको प्रकाशित किया था।

चौपाइयों और आरती में देशभावना

अंग्रेज और उनके कारखास की नजर जनक्रांति को रोकने की ओर रहती थी। साहित्यकारों पर प्रतिबंध लगाए जाते थे। उनकी प्रतियों को नुकसान पहुंचाया जाता था। उस समय रचनाकारों ने चौपाइयों और आरती के माध्यम से देशभावना का प्रचार-प्रसार किया। किसानों, मजदूरों, असहायों की पीड़ा को लेखनी से आवाज दी। इसी का ही नतीजा था कि आगरा से साहित्यकार नाथू राम शर्मा और बिजनौर से अनूप शर्मा भी कानपुर में आ गए थे।

सत्तीचौरा घाट पर नजर आईं थी लाशें

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मुंह की खाने के बाद अंग्रेजी सैनिक कलकत्ता (अब कोलकाता) जाने के लिए तैयार हो गए। 27 जून 1857 को 40 नावें मंगवाई गईं। सत्तीचौरा (मैस्कर) घाट पर काफी संख्या में भीड़ एकत्रित हुई। अंग्रेजों की ओर से अचानक किसी ने फायङ्क्षरग कर दी। कुछ लोग घायल हुए, इससे भीड़ उग्र हो गई। काफी संख्या में अंग्रेज सैनिक मारे गए। क्रांतिकारियों ने जयघोष किया था।

जब दी गई थी 133 क्रांतिकारियों को फांसी

नानाराव पार्क भी इतिहास का गवाह है। वह अपने वीर सपूतों की कुर्बानी पर खून के आंसू रोया था। यहीं पर बरगद के पेड़ से चार जून 1857 को 133 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। कई साल तक यह न भुलाने वाली यादों को संजोए रहा। कुछ साल पहले ही पेड़ जमींदोज हो गया।

बीबीघर में लिया बदला

सत्तीचौरा की घटना के बाद क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सैनिकों की पत्नी और बच्चों को पकड़ लिया। नानाराव पेशवा ने उन्हें सुरक्षित जगह पर बीबीघर (नानाराव पार्क ) भेज दिया। यह एक अंग्रेज अफसर का बंगला था। बच्चों व महिलाओं की जिम्मेदारी हुसैनी खानम नाम की महिला को दी गई। इस बीच दोबारा से अंग्रेजी सेना कानपुर में प्रवेश कर गई। क्रांतिकारियों को मारना शुरू कर दिया। प्रतिशोध में अंग्रेजी महिलाओं व बच्चों की हत्या कर दी गई। उनके शव कुएं में ङ्क्षफकवाकर पाट दिया गया।

पेशवा महल से फूटी थी 1857 की क्रांति

बिठूर के नाना साहब पेशवा महल से ही स्वतंत्रता आंदोलन की ङ्क्षचगारी फूटी थी। नाना साहब पेशवा की आवाज पर कानपुर ही नहीं आसपास की रियासतें एक जुट हो गईं थी। चारों ओर से क्रांतिकारियों ने अलग अलग टुकडिय़ों में बंटकर फिरंगियों पर हमले किए थे। मराठा क्रांतिकारियों के साथ बिठूर के रमेल नगर के मल्लाहों ने इस आजादी की जंग में नाना साहब का साथ दिया था। चार जून से 25 जून 1857 को कानपुर का कोना कोना आजादी के लिए उठ खड़ा हुआ था। नाना साहब के साथ तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई की अगुवाई में क्रांतिकारी एकजुट हो गए थे। चार जून को अंग्रेजों की पिकेट में तैनात टक्का ङ्क्षसह ने साथियों को विद्रोह का संकेत दिया। क्रांतिकारियों ने नवाबगंज का खजाना लूट लिया। गोला बारूद भी साथ ले गए थे।  


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