Hindi Diwas 2018: हिंदुस्तान में ही हार गई हिंदी, मातृभाषा में लिखा शोध पत्र स्वीकार नहीं
हिंदुस्तान में हिंदी का हश्र क्या है और उन्नयन की क्या आस? इन दो सवालों का सटीक जवाब आइआइटी के पूर्व शोध छात्र सुनील सहस्त्रबुद्धे की आपबीती देती है।
कानपुर(जितेंद्र शर्मा)। हिंदुस्तान में हिंदी का हश्र क्या है और उन्नयन की क्या आस? इन दो सवालों का सटीक जवाब आइआइटी के पूर्व शोध छात्र सुनील सहस्त्रबुद्धे की आपबीती देती है। इन्होंने 1981 में अपना शोध पत्र जमा किया था, लेकिन आज तक पीएचडी अवार्ड नहीं हुई। उनका गुनाह सिर्फ यही था कि उन्होंने शोध पत्र हिंदी में लिखा था। मातृभाषा के सम्मान में उस वक्त 30 साल का नौजवान शोधछात्र आइआइटी प्रबंधन से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ा, लेकिन इंसाफ न मिला। अपने हिंदीभाषी देश में ही हिंदी क्यों हारी? इसका जवाब 68 साल के हो चुके सहस्त्रबुद्धे के पास अब भी नहीं है।
झूठे ढिंढोरों का मचा हर तरफ शोर
सरकारी विभागों में हिंदी पखवाड़ा, गोष्ठियां, बड़ी-बड़ी बातें, विश्व हिंदी सम्मेलन और भी न जाने क्या-क्या। यूं ही गूंज रहे इस झूठे ढिंढोरे के शोर को सुनील सहस्त्रबुद्धे की दस मिनट की बात दबा देती है। फिलहाल बनारस में रह रहे सहस्त्रबुद्धे ने 1971 में रसायन विज्ञान में एमएससी की, लेकिन दर्शन शास्त्र और हिंदी के प्रति लगाव था। 1972 में आइआइटी कानपुर में पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन कराया। वह बताते हैं कि 'औपनिवेशिक मनुष्य की अवधारणा' विषय पर शोध कर हिंदी में शोध पत्र लिखा। तब आइआइटी की प्रो. मलिक सुपरवाइजर थीं। उन्होंने आपत्ति जताते हुए समझाया कि हिंदी में नहीं, अंग्रेजी में लिखिए। सहस्त्रबुद्धे नहीं माने तो सुपरवाइजर ने संस्थान को शोध पत्र भेज दिया। वहां से चिट्ठी आई कि हिंदी में शोध पत्र स्वीकार नहीं किया जा सकता।
आगे की प्रक्रिया नहीं
संस्थान के इस फैसले के खिलाफ वह इलाहाबाद हाईकोर्ट चले गए। वहां से शोध पत्र स्वीकार करने का आदेश हुआ तो आइआइटी प्रबंधन ने शोध पत्र जमा तो कर लिया, लेकिन कह दिया कि कोर्ट के आदेश पर इसे जमा किया है, लेकिन आगे की प्रक्रिया नहीं की जाएगी। हाईकोर्ट का भी अंतिम फैसला सुनील सहस्त्रबुद्धे के खिलाफ ही गया। इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। वहां से आइआइटी को नोटिस जारी हुए, संस्थान ने जवाब देने के साथ शोध छात्र को हिंदी के नाम पर नेतागिरी करने वाला बता दिया। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने भी याचिका खारिज कर दी।
हिंदी हारी तो टूट गया दिल
सुनील कहते हैं कि यह दुर्भाग्य ही है कि हिंदी में शोध पत्र लिखने की वजह से मुझे पीएचडी अवार्ड ही न हो सकी। न्यायालय से याचिका खारिज होने के बाद इतने वर्षों में फिर दोबारा संस्थान में पीएचडी के लिए संपर्क ही नहीं किया।