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जुनूनी दिव्यांग ने थामी कौशल विकास की 'बैसाखी'

कागजों से निकलकर योजनाएं हकीकत की जमीं पर साकार होती हैं तो जरूरतमंदों के लिए राह भी बनाती है। दोनों पैरों से दिव्यांग सुनील इसकी बेहतरीन नजीर हैं। जो सुनील खुद किसी के सहारे लायक थे, उन्हें प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना ने हुनर के ऐसे पांव दिए कि अब वह अपने परिवार का सहारा बन गए।

By JagranEdited By: Published: Fri, 01 Jun 2018 02:05 AM (IST)Updated: Fri, 01 Jun 2018 05:26 PM (IST)
जुनूनी दिव्यांग ने थामी कौशल विकास की 'बैसाखी'

जागरण संवाददाता, कानपुर: कागजों से निकलकर योजनाएं हकीकत की जमीं पर साकार होती हैं तो जरूरतमंदों के लिए राह भी बनाती है। दोनों पैरों से दिव्यांग सुनील इसकी बेहतरीन नजीर हैं। जो सुनील खुद किसी के सहारे लायक थे, उन्हें प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना ने हुनर के ऐसे पांव दिए कि अब वह अपने परिवार का सहारा बन गए। हुनरमंद हाथों से धूपबत्ती और अगरबत्ती जैसे उत्पाद तैयार करते हैं, कुछ सामान बाजार से लेते हैं और अपनी ट्राइसिकिल से बेचकर सुखी जीवन बिता रहे हैं।

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आवास विकास कॉलोनी निवासी सुनील के दोनों पैर बचपन में ही पोलियो का शिकार हो गए थे, जिसकी वजह से वह चलने में असमर्थ हो गए। सुनील तो उस समय बहुत छोटे थे और कुछ समझ नहीं सकते थे, लेकिन उनके परिवार के लिए यह बुरी खबर थी। सुनील अपनी आयु के दूसरे बच्चों के साथ खेल नहीं पाते थे। हालांकि फिर भी उनके साथ शामिल होने का पूरा प्रयास करते थे। पिता सरकारी विभाग में कार्यरत थे, लेकिन 2006 में उनके निधन ने परिवार को तगड़ा झटका दिया। सुनील उस समय मात्र नौ वर्ष के थे। मां लाजवती ने पिता के स्थान पर संविदा पर नौकरी कर बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। पिता के निधन से सुनील बचपन में ही बड़ों की तरह सोचने लगे। मात्र 10 वर्ष की आयु में ही वह 2007 में हैंडीकैप्ड एसोसिएशन ऑल इंडिया संगठन से जुड़ गए।

पूरी हिम्मत के साथ सुनील ने किसी तरह अपनी पढ़ाई जारी रखी, लेकिन 2014 में हाईस्कूल करने के बाद वह अपनी पढ़ाई आगे जारी नहीं रख सके। पढ़ाई रुकी तो उन्होंने कौशल विकास की तरफ खुद को मोड़ लिया। संस्था की ओर से दिव्यांगों के लिए कौशल विकास मिशन के तहत आयोजित एक वर्कशाप में उन्होंने अगरबत्ती, धूपबत्ती, मोमबत्ती बनाने का प्रशिक्षण लिया। बस यहीं से उनकी जिंदगी की राह बदल गई।

प्रशिक्षण लेने के बाद उन्होंने किसी तरह धन की व्यवस्था कर छोटी सी मशीन से अगरबत्ती बनानी शुरू की। तीन से चार किलो अगरबत्ती बनाने के बाद वह उसे अपनी ट्राइसिकिल पर ही आसपास के मोहल्लों में घूम कर बेच देते थे। कई बार इतनी अगरबत्ती बेचने के लिए उन्हें तीन-चार दिन लग जाते थे, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। इसके बाद कुछ उत्पादकों और थोक विक्रेताओं से उन्होंने धूप बत्ती, मोमबत्ती, फिनाइल लेकर बेचना शुरू कर दिया। लोगों से बहुत ही मीठा बोलने वाले सुनील के आसपास के मोहल्लों में कई स्थाई ग्राहक हो गए। बिक्री बढ़ी तो लाभ भी बढ़ा और उन्होंने दो वर्ष पहले बैट्री वाली ट्राइसिकिल खरीद ली। अब वह बैट्री ट्राइसिकिल लेकर दूर-दूर तक निकल जाते हैं। इस तरह हर माह उनकी 10 हजार के आसपास आय हो जाती है। सुनील के मुताबिक, कुछ भी हो जाए। न वह पान मसाला व सिगरेट का इस्तेमाल करते हैं और ना ही इन्हें कभी बेचेंगे।


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