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सियासी वफादारी में लाजवाब रही इत्रनगरी

प्रशांत कुमार कन्नौज कभी उत्तर भारत की राजधानी रहा कन्नौज आज उत्तर प्रदेश की सियासत क

By JagranEdited By: Published: Tue, 19 Mar 2019 11:32 PM (IST)Updated: Tue, 19 Mar 2019 11:32 PM (IST)
सियासी वफादारी में लाजवाब रही इत्रनगरी

प्रशांत कुमार, कन्नौज : कभी उत्तर भारत की राजधानी रहा कन्नौज आज उत्तर प्रदेश की सियासत का केंद्र बिदु है। पूरी दुनिया को खुशबू से महकाने वाली इत्र नगरी के लोगों का मिजाज भी जुदा है। ऋषियों की तपोभूमि रही कन्नौज की धरती और यहां के बाशिंदों के खून में त्याग और सेवा के साथ वफादारी भी कूट-कूटकर भरी है। यही वजह है कि जिसे एक बार दिल में बसाया तो उस पर बार-बार दुलार लुटाया। दूसरी ओर, जिसे एक बार नजरों से उतारा तो वह चाह कर भी दोबारा दिल में जगह नहीं बना पाया। सियासत में भी यही बात लागू होती है। यहां की जनता एक बार साइकिल पर सवार हुई तो फिर उतरी नहीं।

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वर्ष 1997 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने कन्नौज को जिले का दर्जा दिया। तब से हर लोकसभा चुनाव में यहां सपा ने जीत दर्ज की। पिछली बार मोदी लहर के बावजूद सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव ने जीत दर्ज की थी। पिछला इतिहास देखें तो साल 1998 में प्रदीप यादव ने भाजपा उम्मीदवार चंद्रभूषण को हरा समाजवादी पार्टी की एंट्री कराई थी। इसके बाद सपा की जीत सिलसिला तक नहीं टूटा। तब से आज तक कन्नौज अन्य दलों के लिए अभेद किला बना हुआ है। यूं चला सपा की जीत का सिलसिला

1998 के चुनाव में प्रदीप यादव ने जीत दर्ज की। 1999 में सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव जीते। उनके इस्तीफा देने पर रिक्त हुई सीट पर वर्ष 2000 के उपचुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पहली बार सांसद बने। इसके बाद उन्होंने 2004 व 2009 में लगातार जीत दर्ज कर हैट्रिक लगाई। 2012 के उपचुनाव में उनकी पत्नी डिपल यादव निर्विरोध चुनकर लोकसभा पहुंचीं। 2014 में डिपल ने भाजपा के सुब्रत पाठक को हराया। जिला बनने से पहले कांग्रेस को मिला प्यार

आजादी के बाद 1952 के पहले आम चुनाव में कन्नौज लोकसभा सीट पर कांग्रेस के शंभूनाथ मिश्रा सांसद बने थे। 1957 में वह दोबारा चुनाव जीते। 1962 में मूलचंद्र दुबे, 1963 में शंभूनाथ मिश्रा ने विजयश्री हासिल की। कांग्रेस के इस विजय अभियान पर ब्रेक लगाया समाजवादी विचारधारा के जनक डॉ. राम मनोहर लोहिया ने। उन्होंने 1967 में कद्दावर कांग्रेसी नेता शंभूनाथ मिश्रा को हराया। 1971 में फिर कांग्रेस लौटी और शंभूनाथ मिश्रा जीते। इसके बाद हुए चुनाव में जनता दल के प्रत्याशी को जीत मिली। 1984 में शीला दीक्षित ने कांग्रेस की वापसी कराई, लेकिन 1989 के चुनाव में लोकदल प्रत्याशी छोटे सिंह यादव से हार गईं। इस हार के बाद वह दिल्ली चली गई। तब से अभी तक कांग्रेस यहां जीत का स्वाद चखने के लिए बेकरार है।


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