रामायण-महाभारत से लेकर इतिहास में दर्ज है इसकी स्वर्णिम गाथा, फिर लौटेगा वो गौरव
यह पहली बार हुआ है जब यहां की तमाम ऐतिहासिक संपदाओं की डिजिटल पैमाइश कराई गई है।
कन्नौज [शिवा अवस्थी]। कन्नौज का एक समृद्ध इतिहास रहा है। आज इत्र नगरी के रूप में विख्यात उत्तर प्रदेश का यह शहर कभी भारतीय धर्म-कला-संस्कृति के केंद्र में था। पाषाणकाल से लेकर मुगलकाल तक के अनेक पुरातात्विक साक्ष्यों को संजोये हुए कन्नौज को पर्यटन के नक्शे पर हालांकि वह अहमियत कभी नहीं मिल सकी, जिसका वह हकदार रहा है।
लेकिन अब इसे लेकर ठोस प्रयास शुरू होता दिख रहा है। यह पहली बार हुआ है जब यहां की तमाम ऐतिहासिक संपदाओं की डिजिटल पैमाइश कराई गई है। स्थानीय प्रशासन और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण नए सिरे से काम में जुट गए हैं। कार्ययोजना तैयार कर शासन को प्रस्ताव भेजने की तैयारी है। यदि सब कुछ ठीक रहा तो भविष्य में यह एक समृद्ध पर्यटक स्थल के रूप में सामने होगा।
क्या कहता है इतिहास: पुराणों, रामायण, महाभारत से लेकर फाह्यान और ह्वेनसांग जैसे विदेशी यात्रियों द्वारा दिए गए वृत्तांतों से कन्नौज के समृद्ध इतिहास का पता चलता है। कभी इसे कान्यकुब्ज कहा जाता था, जो हिंदू साम्राज्य की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित रहा था। दूसरी सदी ई.पू. में पंतजलि रचित महाभाष्य में भी कन्नौज का उल्लेख मिलता है।
भारत के बाहर भी थी प्रसिद्धी: भारत ही नहीं, भारत के बाहर भी इसकी प्रसिद्धी थी। प्रसिद्ध ग्रीक विद्वान टाल्मी द्वारा 140 ई. में लिखे गए ग्रंथ भूगोल में कन्नौज को कनगौर या कनोगिया लिखा गया है। 405 ई. में चीनी यात्री फाह्यान कन्नौज आया था। सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल (606-47ई.) में कान्यकुब्ज अपने चरमोत्कर्ष पर था। एक अन्य चीनी यात्री ह्वेनसांग इस काल में भारत आया। ह्वेनसांग ने तब कन्नौज को भारत का सबसे बड़ा एवं समृद्धशाली नगर बताया।
कहां खो गई विरासत: फाह्यान के दिए वृत्तांतों में यहां दो बौद्ध विहारों और दो स्तूपों के होने का उल्लेख है। एक विहार में बुद्ध के कुछ समय ठहरने और एक स्तूप में बुद्ध का दांत रखे होने के भी उल्लेख अन्य विवरणों में मिलते हैं। फाह्यान के दो सौ साल बाद आए ह्वेनसांग ने यहां पर सौ बौद्ध विहारों और दो सौ मंदिरों के होने की बात कही। ह्वेनसांग ने नगर के सैकड़ों देवालयों में महेश्वर शिव और सूर्य मंदिरों का विशेष उल्लेख किया है। जिन्हें उसने सुंदर नीले पत्थरों और कीमती रत्नों से निर्मित बताया, जिनमें अनेक सुंदर मूर्तियां उत्खनित थीं।
एक हजार व्यक्ति करते थे पूजा: उसके अनुसार यहां के देवालय, बौद्ध विहारों के समान ही भव्य और विशाल थे। प्रत्येक देवालय में एक हजार व्यक्ति पूजा के लिए नियुक्त थे और मंदिर दिन-रात नगाड़ों तथा संगीत के घोष से गूंजते रहते थे। ह्वेनसांग यहां भद्रविहार नामक एक बौद्ध महाविद्यालय का भी उल्लेख करता है, जहां वह 635 ई. में तीन मास रहा था।
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कई विद्वान कर चुके हैं शोध: यह विरासत आखिर कहां खो गई? क्या इसे पुरातात्विक खुदाई से खोजा जा सकता है? प्रशासन को यह तय करना है। अमेरिकी इतिहासकार डॉ. कैरीन सोमर, चीन के प्रो. जिंग जांग समेत जापान व इंग्लैंड के कई विद्वान यहां शोध करने आ चुके हैं। 1955 में जयचंद के किले के नजदीक जब उत्खनन कराया गया तो कई प्राचीन मूर्तियां मिली।
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