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375 दिन में ही ब्रिटिश हुकूमत की बुनियाद हिलाई

::: दीपांजलि की ख़्ाबर के साथ ::: 0 बुन्देलखण्ड के साथ उत्तर-मध्य भारत पर भी रानी लक्ष्मीबाई न

By JagranEdited By: Published: Tue, 13 Nov 2018 01:08 AM (IST)Updated: Tue, 13 Nov 2018 01:08 AM (IST)
375 दिन में ही ब्रिटिश हुकूमत की बुनियाद हिलाई

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दीपांजलि की ख़्ाबर के साथ

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0 बुन्देलखण्ड के साथ उत्तर-मध्य भारत पर भी रानी लक्ष्मीबाई ने छोड़ा प्रभाव

0 झाँसी से निकली क्रान्ति देशभर में फैली

झाँसी : वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई ने महज 375 दिन तक झाँसी पर राज किया, लेकिन इस अल्प अवधि में रानी को हर ़कदम पर संघर्ष करना पड़ा। देश की आजादी से लेकर झाँसी का अस्तित्व बचाने के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया। कभी परदे के पीछे रहकर विद्रोहियों को एकजुट किया, तो कभी मैदान में आकर तलवार लहराई। रानी के इसी शौर्य ने पूरे उत्तर-भारत में उनका प्रभाव कायम किया। सन् 1857 में रानी लक्ष्मीबाई की अगुवाई में शुरू की गई क्रान्ति ने ही ब्रिटिश हुकूमत की बुनियाद हिलाई। इस कठिन स़फर में रानी जहाँ-जहाँ गई, वह स्थान इतिहास के पन्नों में गुम हो गए हैं। 'जागरण' द्वारा रानी के जन्म दिवस पर मनाए जा रहे 'दीपांजलि' पर यह भूली-बिसरीं यादें भी ताजा होंगी।

समाजसेवी मुकुन्द मेहरोत्रा के अनुसार-19 मई 1842 को 14 वर्ष की आयु में लक्ष्मीबाई का विवाह महाराजा गंगाधर राव के साथ हुआ। गणेश मन्दिर में वैवाहिक रस्में पूर्ण की गई, जिसके बाद रानी व राजा पैदल ही किले में आए। रास्ते में रानी ने सिंधी तिराहा पर स्थित मन्दिर में पूजा-अर्चना की। बाद में भी इस मन्दिर में रानी अक्सर जाती रहीं। रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन उसकी मृत्यु के बाद महाराजा गंगाधर राव वियोग में डूब गए और बीमार पड़ गए। हालत बिगड़ती देख महाराजा गंगाधर राव ने दामोदर राव को दत्तक ग्रहण किया। 20 नवम्बर 1854 को एसडीएम कोर्ट में दत्तक ग्रहण का शपथ पत्र दिया और अगले ही दिन महाराज ने प्राण त्याग दिए। इसके बाद से ही रानी के संघर्ष का दौर प्रारम्भ हो गया। अंग्रेजों ने दत्तक ग्रहण को स्वीकार करने से इंकार कर दिया, तो रानी ने ऑस्ट्रेलिया के जॉन लेंग को वकील नियुक्त करते हुए न्यायालय में तीन पिटीशन दायर कीं। गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने तीनों पिटीशन खारिज करते हुए अध्यादेश 'डॉक्टराइन ऑफ लैप्स' जारी किया, जिसे काला अध्यादेश कहा गया। 15 मई 1855 को मेजर ऐलिस द्वारा अध्यादेश उपलब्ध कराते हुए रानी को ऩजरबन्द कर दिया और झाँसी पर अंग्रेजी हुकूमत काबिज हो गई। रानी के लिए 6 ह़जार रुपए सालाना पेंशन भी बाँध दी गई, लेकिन रानी ने इसे लेने से इंकार कर दिया। इस अध्यादेश ने कई राजाओं को प्रभावित किया, जिन्हें रानी ने एकजुट किया। 26 अक्टूबर 1856 को रानी ने कालपी में बैठक बुलाई, जिसमें उत्तर, मध्य भारत के कई राजा शामिल हुए। बैठक में 31 मई 1857 को अंग्रेज सरकार के खिलाफ क्रान्ति का शंखनाद किया गया। राजाओं को ़िजम्मेदारी बाँटी गई, लेकिन तय समय पर क्रान्ति की तैयारी नहीं हो पाई, तो रानी ने अपनी सहायिका जूही के माध्यम से झाँसी छावनी में सैनिकों को विद्रोह के लिए तैयार कर लिया। मुकुन्द मेहरोत्रा बताते हैं कि 4 जून 1857 को 1,200 से अधिक सैनिकों ने रात 8 बजे स्टार फोर्ट पर हमला बोल दिया और तोप से दक्षिणी बुर्ज उड़ाकर गोला-बारूद, कोषागार व बैंक लूटी तथा जेल में बन्द लोगों को मुक्त कराया। 5 जून को विद्रोहियों ने किले पर हमला किया, जिसमें नागरिक भी शामिल हुए। भीषण युद्ध के बाद अंग्रेजों ने 7 जून 1857 को हार स्वीकार की तथा रानी को सत्ता सौंप दी। झाँसी की सत्ता सँभालने के बाद रानी ने करैरा व पिछोर पर भी अधिपत्य हासिल किया और यमुना किनारे अपने राज का विस्तार किया। 10 महीने बाद 1 अप्रैल 1858 को अंग्रेजों ने एक बार फिर रानी पर हमला किया। पूरी योजना से किए गए इस हमले का रानी ने मजबूती से जवाब दिया, लेकिन फिर दुर्ग छोड़कर भागना पड़ा। दत्तक पुत्र को पीठ पर बाँधकर निकली रानी ने ग्राम बूढ़ा में शरण ली, जहाँ से अपने पुत्र दामोदर को चुर्खी अपने रिश्तेदारों के पास भेज दिया। बूढ़ा के बाद उन्नाव फिर 12 दिन तक भाण्डेर में रानी ने आश्रय लिया, जिसके बाद कोंच पहुँच गई। मुकुन्द मेहरोत्रा के अनुसार- अंग्रेज रानी का पीछा कर रहे थे, तब रानी लोहा गढ़ पहुँची, जहाँ रहने वाले पठानों ने रानी के लिए युद्ध लड़ा और रानी को कालपी की ओर निकाला। पठानों ने झाँसी की ओर से आ रहे अंग्रेजों को रोका और रानी ने कालपी की ओर से आ रहे अंग्रेजों से युद्ध लड़ा और अंग्रेजों को परास्त किया। कालपी में कुछ समय ठहरने के बाद रानी ग्वालियर आई और यहाँ की सत्ता पर काबिज हो गई। यहीं अंग्रेजों से युद्ध के बाद गंगादास के आश्रम में रानी वीरगति को प्राप्त हुई। यह तारीख थी 17 जून 1858, यानी महज 375 दिन तक ही लक्ष्मीबाई झाँसी की रानी रह सकीं।

बॉक्स.

40 दिन तक किया ग्वालियर पर राज

महारानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी के अलावा ग्वालियर रियासत पर भी राज किया, लेकिन यह अवधि महज 40 दिन की ही रही। समाजसेवी मुकुन्द मेहरोत्रा बताते हैं कि अंग्रेजों से युद्ध करते हुए रानी कालपी से ग्वालियर आई, तो सिंधिया परिवार ने 8 मई 1858 को महारानी लक्ष्मीबाई को ग्वालियर की सत्ता सौंप दी। 16 जून 1858 को अंग्रेजों ने यहाँ रानी पर हमला किया, जिसके बाद 17 जून 1858 को रानी वीरगति को प्राप्त हुई।

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रानी के जीवन से जुड़े अहम स्थान

स्थल : धनराशि

रानी किला : विवाह के बाद सबसे पहले लक्ष्मीबाई इसी किले में आई। इससे रानी की कई यादें जुड़ी हैं। यह दुर्ग अब भी काफी अच्छी हालत में है और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है।

रानी महल : महाराजा गंगाधर राव व रानी यहाँ रहते थे। इस समय दुर्ग में ऐतिहासिक व प्राचीन मूर्तियों का संग्रह किया गया है।

बरुआसागर किला : वैसे तो यह दुर्ग ओरछा नरेश के अधिपत्य में था, लेकिन उन्होंने महाराजा गंगाधर राव को दे दिया था। गर्मियों में रानी इस दुर्ग में प्रवास करती थीं।

भाण्डेरी गेट : अंग्रेजों द्वारा हमले के बाद रानी दत्तक पुत्र दामोदर के साथ इसी गेट से निकली थीं, जिसके बाद वह झाँसी नहीं लौटीं।

लोहागढ़ की गढ़ी : लोहागढ़ में रानी दो तरफ से घिर गई, तब यहाँ रहने वाले पठानों ने रानी को सुरक्षित निकाला। यहीं पर रानी का पहली बार अंग्रेजों से सीधा युद्ध भी हुआ।

कालपी का किला : इस किले में रानी लक्ष्मीबाई के आह्वान पर बैठक हुई, जहाँ अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्ति की रणनीति बनाई गई। बाद में रानी ने यहाँ आश्रय भी लिया।

ग्वालियर स्मारक : ग्वालियर में फूलबाग के पास रानी का स्मारक है। यहाँ स्वर्ण रेखा नदी के किनारे गंगादास के आश्रम में रानी ने प्राण त्यागे।

यह स्थान भी रानी से जुड़े

शिव मन्दिर चुर्खी, सरावन की गढ़ी जालौन, गोपालपुर का किला जालौन, मिहोना गढ़ी भिण्ड, अमायन भिण्ड, इन्द्रुखी भिण्ड, बरौल और तारौल भिण्ड, बिल्हाटी भिण्ड।

फाइल : राजेश शर्मा

12 नवम्बर 2018

समय : 5.15 बजे


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