आ गया माहे अ•ा, आंसू बहा लो फातेमा..
लहू में डूबा हुआ मोहर्रम का चांद मंगलवार को नमूदार हुआ, जिसे देखते ही इमाम हुसैन के चाहने वालों की आंखों से आंसू का सैलाब उमड़ पड़ा।
जागरण संवाददाता, जौनपुर: लहू में डूबा हुआ मोहर्रम का चांद मंगलवार को नमूदार हुआ, जिसे देखते ही इमाम हुसैन के चाहने वालों की आंखों से आंसू का सैलाब उमड़ पड़ा। अजादारों ने इमामबाड़ों में फरशे अजा बिछाकर मजलिसों का दौर शुरु कर दिया। लोग काले लिबास पहन कर मजलिसों में शिरकत करने निकल पड़े। नौहा व मातम की सदा से पूरा शहर गमगीन हो गया। महिलाओं ने हाथों की चूड़ी तोड़ कर गम का इ•ाहार किया।
शिया धर्मगुरु मौलाना सफदर हुसैन जैदी ने बताया कि इस्लाम कुर्बानियों का मजहब है और अल्लाह ने इस्लाम के पहले महीने को इस्लाम पर कुर्बान होने वाले शहीदों के नाम लिख दिया है। इस महीने में हजरत इमाम हुसैन इबे अली ने अपने छह माह के दूध पीते बच्चे सहित अपने पूरे खानदान से लेकर 72 साल के अपने चाहने वालों तक की शहादत पेश करना कुबूल किया लेकिन यजीद के हाथों बैयत नहीं की। अगर हजरत इमाम हुसैन भी यजीद से बैयत कर लेते तो आज इस्लाम की तवारीख और सूरत अलग होती। आज जो मस्जिदें आबाद हैं तो हजरत इमाम हुसैन की उस अजीम कुरबानी की बदौलत ही है। इसीलिए मुसलमान 1400 साल से इस महीने को गम की सूरत में मनाते आ रहे हैं। दो मोहर्रम को हजरत इमाम हुसैन कर्बला पहुंचे। इमाम हुसैन के साथ बच्चों समेत कुल 72 लोग थे और उस तरफ यजीद की लाखों की फौज। मुहर्रम तक यजीद ने इमाम हुसैन को हजार तरह के लालच देकर अपनी ओर झुकाने की नाकाम कोशिश की और फिर कामयाब न होने पर मुहर्रम को नहरे फुरात पर कब्जा कर पानी बन्द कर दिया गया। उस पर भी इमाम हुसैन नहीं झुके तो 10 मुहर्रम को इमाम हुसैन के साथ आये सभी 72 लोगों को शहीद कर दिया और औरतों और बच्चों को कैद कर कूफे और शाम की गलियों में बेपर्दा घुमाया गया।