जिनकी मौत पर भी गूंजे ठहाके
नीरज सौखिया, हाथरस : क्या किसी की मौत पर हंसा जा सकता है? देश के प्रसिद्ध हास्य कवि काका ह
नीरज सौखिया, हाथरस :
क्या किसी की मौत पर हंसा जा सकता है? देश के प्रसिद्ध हास्य कवि काका हाथरसी यही चाहते थे। ऐसा हुआ भी। कोई एक परिवार नहीं, पूरा शहर हंसा। उनकी जैसी शवयात्रा अब तक कहीं और नहीं निकली। श्मशान स्थल पर कवि सम्मेलन का किस्सा भी इकलौता ही है। 18 सितंबर 1995 को ठहाकों के बादशाह काका के निधन पर मेले जैसा माहौल था।
काका ने देश ही नहीं, विदेशों में भी हिन्दी काव्य की पताका फहराई और हास्य सम्राट के रूप में ख्याति पाई। केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया। वे चाहते थे कि उनके मरने पर कोई रोए नहीं। यह वसीयत में दर्ज उनकी इच्छा भी पूरी हुई। अंतिम विदाई ठहाकों के बीच दी गई। उनका शव ऊंटगाड़ी पर रखकर अंतिम यात्रा निकाली गई थी। लोग दुकानों और मकानों की छतों से फूल बरसा रहे थे। कोई इमरती की माला पहना रहा था तो कोई मखानों और कोई कपास की। मेवे वाले ने मेवा बरसाया तो इत्र वाले ने इत्र चढ़ाया। यह सब व्यवस्था काका के परिजनों ने नहीं की। पता नहीं बैंडबाजे कौन लाया, कहां से ढोलक-मंजीरे आए। कोई रसिया गा रहा था तो कोई काका की कविताएं सुना रहा था। ऊंटगाड़ी पर लिखा था-'हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई, हर पल हंसते रहना भाई।'
इनसेट-
18 सितंबर को जन्मे,
इसी दिन विदा हुए
यह एक अनूठा संयोग है। काका हाथरसी का जन्म व अवसान एक ही दिन हुआ। 18 सितंबर 1906 को शिव कुमार गर्ग के घर पैदा हुए। उस समय देश में प्लेग बीमारी फैली हुई थी। इसी बीमारी ने उनके पिता की जान ले ली। मा बरफी देवी काका को अपने मायके इगलास ले गईं। वहा उनका बचपन बीता। किशोरावस्था में वे हाथरस लौटे और एक दुकान पर पंिट्टयों पर पेंट का काम किया। साथ पढ़ाई भी। 18 सितंबर 1995 को वे जग को अलविदा कह गए।
चित्रकार भी थे काका : ब्रजभाषा व संस्कृति का ज्ञान उन्हें विरासत में मिला। अंग्रेजी व उर्दू पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। मित्र रंगीलाल के सहयोग से चित्रकारी सीखी। हारमोनियम, तबला, बांसुरी मास्टर नामक पत्रिका का प्रकाशन किया और खुद की संगीत प्रेस की स्थापना की।
देश भर में फहराया परचम : काका की रुचि शुरू से ही कविता में थी। मंचों पर आने के लिए किशोरावस्था से ही संघर्ष किया। इस दौरान कई बार अपमान का सामना करना पड़ा। 1957 में पहली बार लाल किले पर काव्य पाठ किया। यहा क्रांति पर काव्यपाठ करने के लिए कहा गया। समस्या यह कि काका हास्य रचनायें लिखते थे। उन्होंने इसका हल निकाला और 'नहीं सुहाती शाति मुझे, मैं गीत क्रांति के गाऊंगा' कविता सुनाई। यह इतनी पसंद आई कि देश के प्रसिद्ध कवि गोपाल प्रसाद व्यास ने उन्हें गले लगा लिया। इसके बाद काका हास्य कविताओं के लिए प्रसिद्ध हो गए।
खुद पर भी हंसे काका :
काका की दाढ़ी भी काफी लोकप्रिय हो चुकी थी। उन्होंने इसे भी कविता में शामिल किया, 'काका दाढ़ी राखिये, बिन दाढ़ी मुख सून, ज्यों मसूरी के बिना, व्यर्थ है देहरादून।' उन्होंने सेहतमंद रहने का भी मंत्र दिया, 'भोजन आधा पेट कर, दुगुना पानी पीउ, तिगुना श्रम, चौगुन हंसी वर्ष सवा सौ जीउ।' भ्रष्टाचार पर काका ने लिखा, 'गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार बढ़ा दिन-दूना, प्रजातंत्र की स्वतंत्रता का देख नमूना।'
जिससे पढ़ने गए, उसी
पर लिखी पहली कविता
इगलास में काका को उनके मामा ने अंग्रेजी सीखने के लिए लखमीचंद वकील साहब के पास भेज दिया। वकील साहब भारी-भरकम थे। काका ने पहली कविता उन्हीं पर लिख दी। उनके एक साथी ने कविता लिखा कागज उनसे छीन वकील साहब को दे दिया। वकील साहब आगबबूला हो गए। काका ने लिखा था, 'एक पुलिंदा बांधकर कर दी उस पर सील, खोला तो निकले वहा लखमीचंद वकील। लखमीचंद वकील, बदन में इतने भारी, बैठ जायं तो पंचर हो जाए लारी।'