लावारिस शवों का कराते हैं अंत्येष्टि
जिनका कोई नहीं उनका तो खुदा है यारों। ये लाइन बेशक फिल्मी गीत की है लेकिन सटीक बैठती है समाजसेवी सुनीत आर्य पर। कोरोना काल रहा हो या फिर आम दिन। लावारिस शवों की सूचना मिलते ही वे पहुंच जाते हैं अपनी टीम के सदस्यों के साथ श्मशान घाट।
जासं, हाथरस : 'जिनका कोई नहीं, उनका तो खुदा है यारों।' ये लाइन बेशक फिल्मी गीत की है लेकिन सटीक बैठती है समाजसेवी सुनीत आर्य पर। कोरोना काल रहा हो या फिर आम दिन। लावारिस शवों की सूचना मिलते ही वे पहुंच जाते हैं अपनी टीम के सदस्यों के साथ श्मशान घाट। अंत्येष्टि के बाद उसकी अस्थियों को एकत्रित कर गंगा तटों पर विसर्जन करना भी उनकी जिम्मेदारी है।
यहां से मिली प्रेरणा :
शहर के कमला बाजार होटल मैफेयर के रहने वाले पूर्व पालिकाध्यक्ष रमेश चंद्र आर्य के युवा पुत्र सुनीत आर्य ने यह समाजिक कार्य वर्ष 1997 से शुरू किया। हाथरस बेशक जिला बन गया लेकिन यहां मिलने वाली अज्ञात व लावारिस लाशों का पोस्टमार्टम अलीगढ़ में होता था। उस समय लाशों की बेकद्री की खबर अखबारों में प्रकाशित हुई। कुत्ते शवों को नोच रहे थे। कुंड से नर कंकाल मिले। इन समाचारों से उनका मन द्रवित हुआ। तभी अलीगढ़ के समाजसेवी विष्णु बंटी ने मानव उपकार संस्था बनाई, जिससे वह जुड़ गए।
समाज का तिरस्कार
इसी के साथ हाथरस में मानव कल्याण संस्था में पदाधिकारी बने, लेकिन इस कार्य को नहीं छोड़ा। तब सड़ी गली, बदबूदार लाश आती थीं। कुछ मित्र व समाज के लोग विरोध करते, लेकिन मुंह पर रूमाल में कपूर रखकर खुद ही अज्ञात लाशों को मुखाग्नि देते। जो लोग विरोध कर रहे थे आज वे ही उन्हें सहयोग कर रहे हैं। उनका यह कार्य अनवरत जारी है।
अस्थियां रखते संभालकर
सुनीत आर्य बताते हैं कि वे लावारिस लाशों की अस्थियों को तारीख व थाना वार थैले में पैक कर रखते हैं। बाद में इन अस्थियों को गंगा तटों पर ले जाकर उसका विसर्जन करते हैं। इन अस्थियों को यूं ही नहीं छोड़ते। वे कहते हैं कि जिस समाज का मृतक हो उसी के अनुरूप ही लाश का अंतिम संस्कार करते हैं। इनका कहना है
लावारिस ही नहीं बहुत ही ऐसे लोगों की लाशों का भी अंतिम संस्कार कराया है जिनके पास धन का अभाव होता है। उन्हें खाने के लिए भी धन देते हैं। लावारिस लोगों की अस्थियों का गंगा तट पर विसर्जन भी विधि-विधान के साथ कराया जाता है।
-सुनीत आर्य, समाजसेवी