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जिदगी की शाम में भी जश्न का जज्बा

जासं हाथरस हम शनिवार को 74वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे हैं। यह दिन सभी के लिए खास है। खासकर उनके लिए जिन्होंने 15 अगस्त 1947 में आजादी के दिन सूरज को उदय और अस्त होते देखा है।

By JagranEdited By: Published: Sat, 15 Aug 2020 01:05 AM (IST)Updated: Sat, 15 Aug 2020 01:05 AM (IST)
जिदगी की शाम में भी जश्न का जज्बा
जिदगी की शाम में भी जश्न का जज्बा

जासं, हाथरस : हम शनिवार को 74वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे हैं। यह दिन सभी के लिए खास है। खासकर उनके लिए जिन्होंने 15 अगस्त 1947 में आजादी के दिन सूरज को उदय और अस्त होते देखा है। अंग्रेजों के शासन और आजादी के बाद के समय गवाह रहे ये बुजुर्ग अब जिदगी की शाम से गुजर रहे हैं लेकिन आजादी का जज्बा आज भी कायम है। वे उन दिनों को आज के परिवेश में याद कर नए हालात और जीवन शैली में भारी बदलाव पाते हैं। उनका कहना है कि उन दिनों को कभी नहीं भुला पाएंगे। उन्हें फº है कि देश पर मर मिटने वालों की वजह से हमारी पीढ़ी आजाद देश में सांस ले रही है। नई पीढ़ी नहीं समझती आजादी के मायने

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सिकंदराराऊ के गांव नगला ब्राह्मण निवासी 97 वर्षीय बनवारी लाल शर्मा उस समय 24 वर्ष के थे। आजाद भारत की वह पहली सुबह आज तक उनकी यादों में है, जब सब एक दूसरे को बधाई दे रहे थे, मिठाई खिला रहे थे और भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे। पेशे से शिक्षक रहे बनवारी लाल शर्मा का जन्म 1923 में हुआ था। अंग्रेजों की तानाशाही की बातें करते-करते भावुक होते हुए कहा कि आज की पीढ़ी आजादी के मायने नहीं समझती है, लेकिन जिन लोगों ने गुलामी देखी थी, वे वास्तव में आजादी का मतलब समझते हैं। क्योंकि जिस दिन देश आजाद हुआ था, हम गांव में ही थे। कह रहे थे कि अंग्रेजों को हिदुस्तान से खदेड़ दिया गया है। हमने भी अपने दोस्तों की टोली के साथ पूरे गांव में नारे लगाते हुए जश्न मनाया था। उसके बाद गांव में पूजा का एक कार्यक्रम गांव वालों ने आजादी की खुशी में रखा था। उस दिन दीपावली या होली के त्योहार जैसा माहौल पूरे देश में था। तब घर-घर बांटे जाते थे चरखे

हाथरस के हलवाई खाना निवासी 80 वर्षीय लक्ष्मीनारायण अपना वाले उस समय सात साल के थे। जब होश संभाला तो स्कूलों के अलावा अन्य स्थानों पर आजादी का जश्न लोग एक साथ मिलकर मनाते थे। उस समय शहर के बीचोंबीच स्थित घंटाघर पर तब घड़ी की सुइयां चलती थी और उसे आकर्षक ढंग से सजाया था। उसके ऊपर खादी का तिरंगा फहरा था। अब यह घड़ी बंद हो चुकी है। घर-घर व दुकानों पर चरखे बांटे जाते थे। कहा जाता कि घर पर बने धागे से खुद के बुने कपड़े पहनो। रेडियो हर किसी के पास होते थे। समाचार सुनने लिए पहले से ही भीड़ लग जाती थी। उसी दौरान रेडियो पर देशभक्ति के गाने सुनते थे। अब ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता है। तब कानून व्यवस्था सख्त थी। बंटवारे के समय यहां भी तनाव था मगर इस शहर में शुरू से ही सांप्रदायिक सौहार्द रहा है।

बस्तियों में घूमकर मनाते

थे आजादी का जश्न

कस्बा हसायन के मोहल्ला दखल निवासी 88 वर्षीय भगवान सिंह कुशवाहा उस समय 15 साल के थे। बताते हैं देश की आजादी की खुशी घर-घर में थी। बच्चे और बड़े एक साथ हाथ में तिरंगे लेकर बस्तियों में घूम कर आजादी का जश्न मनाते थे। अब ऐसा दिखाई नहीं देता है। आजादी के बाद जमींदारी प्रथा खत्म हुई। उससे आम आदमी को फायदा हुआ। पहले जमीन गिने चुने लोगों के पास होती थी। देश आजाद होने के साथ आबादी बढ़ी तो संसाधन भी बढ़े। हमने वह दिन भी देखा है जब 60 किलोमीटर की दूरी पर अलीगढ़ जिला हुआ करता था। मुकदमों की तारीख करने पैदल ही तड़के तीन बजे निकलते थे और रात को 11 बजे लौटते थे। भारत व पाकिस्तान के बंटवारे के समय हालातों को वे कभी नहीं भूल पाएंगे।


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