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मुसाफिर हूं यारों : काम बाद में, पहले इनाम ले लो Gorakhpur News

पढ़ें गोरखपुर से प्रेम नारायण द्विवेदी का साप्‍ताहिक कॉलम मुसाफिर हूं यारों...

By Satish ShuklaEdited By: Published: Mon, 06 Apr 2020 06:17 PM (IST)Updated: Mon, 06 Apr 2020 06:17 PM (IST)
मुसाफिर हूं यारों : काम बाद में, पहले इनाम ले लो Gorakhpur News
मुसाफिर हूं यारों : काम बाद में, पहले इनाम ले लो Gorakhpur News

प्रेम नारायण द्विवेदी, गोखपुर। देश में कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। लाख प्रयास के बाद भी सुरक्षा उपकरण अंतिम व्यक्ति से कोसों दूर हैं। आज भी रेल लाइनों पर पसीना बहाने वाले हजारों रेलकर्मी ग्लब्स की राह देख रहे हैं। रेलवे अस्पतालों का पैरामेडिकल स्टाफ तक मॉस्क खोज रहा है। अभी कोरोना दुम दबाकर भागा भी नहीं कि रेलवे में पुरस्कारों की घोषणा शुरू हो गई। पुरस्कार के नाम पर 31 लाख का आवंटन भी चर्चा का विषय बना हुआ है। वैसे इस माहौल को एक तरह का चलन भी कह सकते हैं। उ'च अधिकारी जब दफ्तर से बाहर होते हैं या किसी कार्यक्रम में पहुंचते हैं, तो मौके पर सामूहिक पुरस्कार की घोषणा कर देते हैं। लेकिन, इस बार रेलवे की यह परंपरा अपने सिस्टम में ही चुभने लगी है। पुरस्कार बेहतरी के लिए प्रेरित करते हैं, पर सफलता मिलने के बाद ही अ'छे लगते हैं।

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कोरोना ने छीन लिया इनका रोजगार

यूं तो रेलवे और रोडवेज में मांगों को लेकर वर्ष पर्यंत धरना-प्रदर्शन चलता रहता है, लेकिन कोरोना ने इसपर भी पहरा लगा दिया है। आंदोलन के साथ ही कर्मचारी संगठनों के कामकाज भी ठप हैं। इस महामारी ने तो कुछ पदाधिकारियों को बिना छुए बीमार बना दिया है। उनका रोजगार ही छिन गया है। न घर में समय कट रहा और न कोई मुद्दा है। कुछ पदाधिकारियों से रहा नहीं गया तो मॉस्क और सैनिटाइजर की कमी को लेकर सक्रिय हो गए। जब किसी ने सुध नहीं ली तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा एक दिन के वेतन को संगठन की उपलब्धि बता सोशल मीडिया में कूद पड़े। यहां पता चला कि कामगार भी कोरोना के साथ जंग में राहत कोष में अपना सहयोग देकर दो-दो हाथ करने को तैयार हैं। बातचीत में एक पदाधिकारी की पीड़ा छलक पड़ी। बोले, हम तो कहीं के नहीं रह गए हैं।

धैर्य रखो, फिर लौटेगी चहल-पहल

लॉकडाउन में भी दायित्वों का निर्वहन करते हुए कदम रेलवे की तरफ बढ़ गए। आदतन रास्ते में पडऩे वाले रेल म्यूजियम की ओर नजरें चलीं गईं। गेट पर लटके बड़े ताले को देख मोटरसाइकिल के पहिए थम गए। जिस म्यूजियम में रोजाना हजारों आंखें एक-दूसरे को देख खुश होती थीं, आज वहां उदासी थी। शांत सड़क को देख उदास मन गेट के अंदर झांकने की कोशिश करने लगा। हवा के साथ झूले हिल रहे थे। जैसे वह कह रहे हों, हम रुकेंगे नहीं। एक दिन मेरे चाहने वाले आएंगे और हवा में सैर कराएंगे। पास ही ब'चों की ट्रेन भी सज-संवरकर खड़ी थी। जैसे कह रही हो, बस कुछ दिन की ही तो बात है। इसी बीच लगा जैसे आम के दरख्तों से आवाज आई कि महामारी की ताप शांत करने के लिए मेरी बाहें फैलने लगी हैं। मन को तसल्ली हुई और कदम आगे बढऩे को तैयार हो गए।

रेलवे की दुलारी बन गईं मालगाडिय़ां

देशभर में यात्री ट्रेनें बंद हैं। स्टेशनों से भीड़ गायब है, लेकिन ट्रेनों की आवाज कहीं गुम नहीं हुई है। अपनी छुक-छुक से मालगाडिय़ां यह अहसास करा रही हैं कि घबराओं नहीं, मैं हूं न। चूल्हा बुझने नहीं दूंगी। आटा, तेल, मसाला और सब्जी पहुंचाऊंगी। यह सही भी है, गोरखपुर रूट से ही रोजाना 30 मालगाडिय़ां खाद्य सामग्री लेकर फर्राटा भर रही हैं। कहीं, गेहूं उतार रही हैं, तो कहीं नमक और चीनी। इस समय तो वह भी रेलवे की दुलारी बन गई हैं। जिन स्टेशनों पर वह किनारे उपेक्षित भाव से खड़ी कर दी जाती थीं, आज उनके लिए प्लेटफार्म मुहैया कराए जा रहे हैं। उन्हें चलाने के लिए स्टेशनों पर रेलकर्मियों की अलग से ड्यूटी लग रही है। रास्ते में कहीं कोई अवरोध न हो, इसके लिए रेल लाइनों की निगरानी बढ़ा दी गई है। ताकि, देश के एक से दूसरे छोर तक नमक और तेल पहुंच सके। 


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