मुसाफिर हूं यारों : बाहर के साथ भीतर के 'सैनिटाइजर का चलन Gorakhpur News
पढ़ें गोरखपुर से प्रेम नारायण द्विवेदी का साप्ताहिक कॉलम मुसाफिर हूं यारों---
प्रेम नारायण द्विवेदी, गोरखपुर। कोरोना काल में सैनिटाइजर घर-दफ्तर की अनिवार्य आवश्यकता है। गांव की चौपाल तक इसकी धूम है। लेकिन, केंद्रीय स्तर का एक ऐसा भी विभाग है जहां बाहर के साथ भीतर के 'सैनिटाइजर का भी चलन बढ़ गया। है तो यह भी लिक्विड, पर हाथ में लगाने की बजाय पेय के रूप में काम आता है। मास्क की आड़ में कुछ कर्मचारियों ने भीतर का 'सैनिटाइजर इस्तेमाल शुरू कर दिया। भनक आला अफसरों को लगी तो उनके होश उड़े गए। वजह इन कर्मचारियों के कंधों पर हजारों जान की सुरक्षा की जिम्मेदारी रहती है। विभाग ने इस भीतर के 'सैनिटाइजर से निजात पाने की पहल शुरू कर दी है। या यूं कहें कि भीतर का 'सैनिटाइजर प्रयोग करने वालों को बाहर का रास्ता दिखाने की ठान ली है। चिंता में डूबे विभाग ने भीतर के 'सैनिटाइजर पर पाबंदी के लिए फिर से श्वसन परीक्षण शुरू करा दिया। इसको लेकर खलबली है।
खाली पेट फांद रहे वार्ड की दीवार
संकट की इस घड़ी में खूब खा-पीकर स्वस्थ रहने की जरूरत है। भगवान न करें कि कोई संक्रमित हो। हो भी गए तो इतने मजबूत रहें कि अस्पताल में दो-चार दिन भोजन-पानी न मिले तो भी कोरोना से लड़ सकें। यह हम नहीं कह रहे, बल्कि अस्पतालों के कोरोना वार्ड की 'चाकचौबंद बताई जा रहीं सुविधाएं अपना संदेश दे रही हैं। वह चेतावनी दे रही हैं कि आत्मनिर्भर बन जाओ, नहीं तो छले जाओगे। वार्डों में न चिकित्सक आ रहे और न ही दवा मिल रही। स्वस्थ करने के लिए को मिलने वाला पौष्टिक भोजन और बीमार बना रहा। केंद्रीय स्तर के एक अस्पताल के कोरोना वार्ड में भर्ती मरीजों का पेट नहीं भर रहा था। खाली पेट मरीज रोजाना शाम को दीवार फांदने लगे। कारण, दीवार से बाहर जाने पर पेट तो भरेगा। अधिकतर डिस्चार्ज होकर घर चले गए। आखिर, कोरोना के साथ व्यवस्था से भी तो लडऩा है।
संकट बढ़ा रही रेलवे की नई बहुरिया
आजकल रेलवे की नई बहुरिया (प्राइवेट ट्रेनें) भी खूब चर्चा में है। प्राइवेट ट्रेनों की हवा ने कोरोना संकट में भी निजीकरण के विरोध में आंदोलन कर रहे कर्मचारी संगठनों के सामने संकट खड़ा कर दिया है। एक तरफ निजीकरण को लेकर पूरे देश में विरोध हो रहा है। दूसरी तरफ प्राइवेट ट्रेनों की समय सारिणी बन रही है। संगठनों को भी समझ में नहीं आ रहा कि अब क्या करें। रेलवे के एक दफ्तर परिसर में एक कर्मचारी संगठन के कुछ पदाधिकारी मिल गए। बातचीत में संगठन के आंदोलन की रूपरेखा बताने लगे। इस बीच मैंने सवाल कर दिया। लगातार आंदोलन के बाद भी प्राइवेट ट्रेनों का शेडयूल तय हो गया। यानी, आपके प्रदर्शन का कोई असर नहीं? 'नहीं- नहीं, हमारा आंदोलन जारी रहेगा। हम इसकी लड़ाई दिल्ली तक लड़ेंगे। एक पदाधिकारी के मन की पीड़ा निकल ही गई। 'रेलवे में इस नई बहुरिया को कतई स्वीकार नहीं करेंगे।
मुंह चिढ़ा रहीं फर्राटा भर रहीं ट्रेनें
स्पेशल ट्रेनों के चलने से गोरखपुर सहित बड़े रेलवे स्टेशनों की रौनक तो कुछ बढ़ गई है, लेकिन छोटे वाले आज भी वीरानी का दंश झेल रहे हैं। हमेशा गुलजार रहने वाले प्लेटफार्मों पर सन्नाटा है। ठेलों पर न भूजा बेचने वालों की आवाज सुनाई पड़ रही और न गर्म पकौड़ी खाते हुए लोग दिख रहे हैं। अब तो फर्राटा भर रही लंबी दूरी की स्पेशल ट्रेनें मुंह चिढ़ाने लगी हैं। इसके बाद भी इन स्टेशनों के कर्मचारियों का हौसला नहीं टूटा है। सहजनवां, डोमिनगढ़ हो या नकहा, कैंट, पिपराइच और कुसम्ही। यह सारे स्टेशन उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब उनके यहां भी चहल-पहल बढ़ेगी। प्लेटफार्मों पर ट्रेनें खड़ी होंगी। बातचीत के दौरान डोमिनगढ़ स्टेशन पर तैनात एक रेलकर्मी के मन की टीस उभर ही गई। वह पिछले चार माह से हरी झंडी दिखाने का कार्य कर रहे हैं। उम्मीद है जल्द ही यहां भी बहार लौटेगी।