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वनटांगियों की अभिव्यक्ति का स्वर हैं विनोद

वंचित, समाज की मुख्य धारा से कटे वनटांगियों के लिए अंधेरे में रोशनी की किरण हैं विनोद।

By JagranEdited By: Published: Mon, 13 Aug 2018 10:45 AM (IST)Updated: Mon, 13 Aug 2018 10:45 AM (IST)
वनटांगियों की अभिव्यक्ति का स्वर हैं विनोद
वनटांगियों की अभिव्यक्ति का स्वर हैं विनोद

क्षितिज कुमार, गोरखपुर

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ऐसी दशा में जबकि आप खानाबदोश की जिंदगी जी रहे हों, न घर का कोई ठीक-ठीक पता हो, न खुद की कोई पहचान। सरकार-प्रशासन भी आपको अपना मानने को तैयार न हो। जाहिर है पहचान और वैधता के संकट की इस स्थिति में आवाज कहां सुनी जाएगी और सुनेगा भी तो कौन? पर इस समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो ऐसे ही वंचित, पीड़ित और शोषित जन की आवाज को स्वर देते हैं। बात हो रही है वनटांगिया समुदाय की और उनकी आवाज बने विनोद तिवारी की।

पीढि़यों से गोरखपुर और महराजगंज जिले के जंगलों में रहने वाले तकरीबन 4200 वनटागिया परिवारों को वर्ष 1984 में अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया गया। सरकार ने इन्हें जंगल खाली करने का फरमान सुना दिया। विरोध हुआ तो मिली पुलिस की लाठी और गोली। दो मजलूम मजदूरों की जान भी गई। इस एक घटना ने इन परिवारों को समाज की मुख्यधारा से काट दिया। समाज तेजी से आगे बढ़ता रहा और यह मजदूर सामाजिक, शैक्षिक, वैचारिक तथा सांस्कृतिक रूप से पीछे छूटते चले गए। ऐसे में वर्ष 1991 में विनोद तिवारी नाम का एक युवा इन बेसहारों को समाज की मुख्यधारा में लाने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ा। जिन वनटांगिया परिवारों की बात कहीं सुनी नहीं जाती है उनकी अभिव्यक्ति की लड़ाई लड़ने का संकल्प लिया। करीब तीन दशक लंबे संघर्ष के बाद विनोद को इसमें कामयाबी भी मिली। सरकार ने जंगलवासी वनटागिया मजदूरों के गांवों को वर्ष 2008 में राजस्व ग्राम का दर्जा दिया। यह विनोद के संघर्ष का ही परिणाम था कि इन मजदूरों को, उस भूमि का मालिकाना हक मिला, जहां वह पीढि़यों से रह रहे थे और खेती कर रहे थे। 2011 के बाद इन गांवों में मूलभूत सुविधाओं की स्थापना को गति मिली, विद्यालय खुले और स्वास्थ्य सुविधाएं भी मिलने लगीं। संगठन की शक्ति ने किया असर

हालात के मारे वनटागिया मजदूरों के लिए विनोद किसी मसीहा से कम नहीं रहे। कप्तानगंज कुशीनगर के रामपुर चौबे गाव निवासी विनोद तिवारी वर्ष 1991 में गोरखपुर विश्वविद्यालय में एमए के छात्र थे। उसी समय उनको वनटागिया मजदूरों की 'बंद जुबान' के बारे में जानकारी मिली। वह इन मजदूरों के बीच गए, उनकी समस्या को जाना-समझा और उनकी अभिव्यक्ति का स्वर बन कर उभरे। विनोद के गाधीवादी आदोलन से प्रदेश के अन्य जिलों के जंगलों में बसे वनटागिया मजदूर जुड़ने लगे। संगठन की शक्ति ने अपना असर दिखाया और सरकार को उनकी बात सुनना ही पड़ा। वर्ष 2006 में बना वनाधिकार कानून

1991 में विनोद तिवारी ने जो आदोलन शुरू किया, उसे पहली उल्लेखनीय कामयाबी 2006 में मिली। वनटागिया मजदूरों के प्रतिनिधि मंडल से कई दौर की वार्ता के बाद प्रदेश सरकार ने उनको हक देने के लिए अनुसूचित जाति, जनजाति एवं परंपरागत निवासी अधिनियम 2006 बनाने की घोषणा की। वर्ष 2007 में इसकी नियमावली बनाई गई और दिसंबर 2008 में इसे लागू कर दिया गया। कानून में व्यवस्था की गई कि तीन पीढि़यों से जंगल में रहने का प्रमाण देने वाले परिवारों को जंगल की जमीन पर उनका वाजिब हक दिया जाएगा। कानून बनने के बाद भी इसमें रह गई कुछ तकनीकी खामियों के चलते वनटांगिया मजदूर अपने हक से वंचित रहे गए। विनोद का संघर्ष जारी रहा। 2010 में वनटागिया मजदूरों की समस्या समझने के बाद तत्कालीन मंडलायुक्त पीके मोहंती और ज्वाइंट मजिस्ट्रेट जीएस नवीन कुमार ने का भी समर्थन मिला। नतीजतन, 25 जुलाई 2011 को महराजगंज के भारीवैसी वनटागिया बस्ती और गोरखपुर के सभी पाच गावों में रहने वाले मजदूरों को जंगल में उनकी जमीन पर मालिकाना हक दिया गया। मिला राजस्व ग्राम का दर्जा

वनटागिया गावों को राजस्व गाव का दर्जा मिलने के बाद भी भूमि को वन विभाग से राजस्व विभाग को देने की गति काफी धीमी रही। बकौल विनोद, प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद इस प्रक्रिया में काफी तेजी आई है। वनटांगिया गांवों को सरकार ने अब राजस्व ग्राम का दर्जा दे दिया है। हालांकि इस सफलता को भी विनोद महज एक पड़ाव ही मानते हैं। विनोद का कहना है कि लक्ष्य तो तब पूरा होगा जबकि वनटांगिया परिवारों के बच्चे भी सामान्य परिवारों की तरह ही पढ़ लिखकर इस योग्य बन सकें कि वह किसी और वंचित तबके की अभिव्यक्ति को स्वर दे सकें।


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