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शिक्षक ने तपस्या कर तीन बेटे को बनाया डाक्टर,एक को प्रोजेक्ट मैनेजर

बड़ा बेटा मो.करीमुद्दीन मलिक ग्रामीण विकास मंत्रालय रांची में प्रोजेक्ट मैनेजर है। दूसरा मो.अजीमुद्दीन मलिक जवाहर लाल नेहरू मेडिकल कालेज अलीगढ़ में मेडिकल साइंटिस्ट है। दो अन्य फरीदुद्दीन और मुजीबुद्दीन मलिक एमबीबीएस हैं।

By JagranEdited By: Published: Sat, 19 Jun 2021 10:38 PM (IST)Updated: Sat, 19 Jun 2021 10:38 PM (IST)
शिक्षक ने तपस्या कर तीन बेटे को बनाया डाक्टर,एक को प्रोजेक्ट मैनेजर
शिक्षक ने तपस्या कर तीन बेटे को बनाया डाक्टर,एक को प्रोजेक्ट मैनेजर

बस्ती: कभी हवा में उछालते थे,कभी करतब दिखाते थे। मेरी एक मुस्कान के लिए कभी हाथी कभी घोड़ा बन जाते थे। सो सकूं मैं पूरी रात चैन के साथ,इसलिए वो पूरी रात एक करवट में गुजारते थे..। यह अल्फाज सिर्फ मेरे,आपके नहीं,बल्कि हर बेटे और बेटी के हैं,जिनके पास हैं पापा। ऐसे ही एक पिता हैं वहीदुद्दीन मलिक। यह बस्ती के खैर इंटर कालेज में रसायन विज्ञान के प्रवक्ता हैं। 32 साल के शैक्षणिक सफर में इनके पढ़ाये पांच सौ से अधिक बच्चे डाक्टर और इंजीनियर हैं। इनके चार बेटे हैं,एक ग्रामीण विकास मंत्रालय में एक प्रोजेक्ट मैनेजर जबकि तीन एमबीबीएस डाक्टर।

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बड़ा बेटा मो.करीमुद्दीन मलिक ग्रामीण विकास मंत्रालय रांची में प्रोजेक्ट मैनेजर है। दूसरा मो.अजीमुद्दीन मलिक जवाहर लाल नेहरू मेडिकल कालेज अलीगढ़ में मेडिकल साइंटिस्ट है। दो अन्य फरीदुद्दीन और मुजीबुद्दीन मलिक एमबीबीएस हैं। बस्ती शहर के कंचन टोला में रहने वाले वहीदुद्दीन मलिक मास्टर मलिक के नाम से विख्यात हैं। बच्चों को पढ़ाने के लिए इन्होंने बेहद सादगी भरा अनुशासित जीवन जीया। बच्चे भी उसी राह पर चले और पिता के श्रम को सफल कर नाम रोशन कर दिए।

मास्टर मलिक के संघर्षों की गाथा लंबी है। मूलत: सिद्धार्थनगर जिले के डुमरियागंज थाना क्षेत्र के कादिराबाद गांव के निवासी हैं। ग्रामीण परिवेश में पले बढ़े मास्टर मलिक ने हाईस्कूल और इंटर की शिक्षा राजकीय जुबिली इंटर कालेज गोरखपुर से ग्रहण की। स्नातक और परास्नातक की पढ़ाई एमएलके पीजी कालेज बलरामपुर से पूरी की। लालबहादुर शास्त्री पीजी कालेज गोंडा से बीएड करने के बाद वर्ष 1989 में खैर इंडस्ट्रियल इंटर कालेज बस्ती में बतौर शिक्षक नियुक्त हुए। तब से छात्रों का भविष्य संवारने की ठानी और अनवरत इस पथ पर चल रहे हैं।

मास्टर मलिक ने बताया कि शुरूआती दौर में इतने वेतन नहीं मिलते थे,जिससे अपने बच्चों को कांवेंट स्कूल में पढ़ा सकें। इस पीड़ा को महसूस किया और खुद के बच्चों को संवारने के साथ स्कूल के छात्रों का भी जीवन गढ़ने लगे। अपने स्कूल में ही चारों बच्चों को पढ़ाया। बेहतर तालीम देकर छात्रों के बीच लोकप्रिय बने रहे। स्कूल में तमाम शिक्षक भी इनकी राह पर चल पड़े नतीजतन एक समय था हर अभिभावक अपने बच्चों को खैर इंटर कालेज में ही पढ़ाने की ख्वाहिश रखने लगा। यह बात दो दशक पहले की है।


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