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आजादी के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है इन दो भाइयों का नाम

आजादी की लडाई में काजी अदील और काजी जलील अब्बासी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

By JagranEdited By: Published: Wed, 15 Aug 2018 09:00 AM (IST)Updated: Wed, 15 Aug 2018 09:00 AM (IST)
आजादी के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है इन दो भाइयों का नाम

अनिल द्विवेदी, गोरखपुर : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले तमाम महापुरुषों मे सिद्धार्थनगर जनपद के डुमरियागंज के दो सगे भाइयों का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। ये नाम हैं, स्व. काजी अदील अब्बासी और स्व. काजी जलील अब्बासी। उक्त दोनों नाम आजादी के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।

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इन दोनों भाइयों के पिता स्व. मोलवी बिस्मिल्लाह बयारा गांव के निवासी हैं। इनके चार बेटे थे लेकिन जिसमें दो बेटे ऐसे थे जो भारत की आजादी में अपने को समर्पित कर चुके थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व डुमरियागंज के पहले विधायक स्व. काजी अदील अब्बासी पत्रकार भी थे, जिनकी अंग्रेजी, उर्दू, फारसी भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी। अपनी शिक्षा पूरी कर वे अपनी कलम लेकर जंगे आजादी के मैदान में कूद पड़े और गांधी जी के अ¨हसा एवं असहयोग आंदोलन व जंगे आजादी में अहम किरदार निभाने वाले समाचार पत्र जमींदार के संपादक थे। जमींदार उस समय लाहौर से प्रकाशित हो रहा था। जमींदार में अंग्रेजों के खिलाफ और हिन्दू-मुस्लिम एकता की वकालत करने वाले अदील अब्बासी अंग्रेजों की आंख में खटकने लगे। वर्ष 1922 में अंग्रेजों ने उन्हें लाहौर की सेन्ट्रल जेल में कैद कर दिया था। उन्हें तमाम यातनाएं भी दीं। 13 महीने तक आजादी के एक और महानतम सेनानी लाला लाजपत राय भी अब्बासी के साथ उसी लाहौर सेंट्रल जेल में कैद थे। लाला लाजपत राय के साथ बिताए गए पल अदील अब्बासी की अंग्रेजी और उर्दू की कई किताबों में दर्ज हैं। मौलाना अबुल कलाम आजाद और पंडित नेहरू के ये खास दोस्तों में शामिल थे। 1957 तक यूपी एसेंबली में डुमरियागंज का प्रतिनिधित्व किया। गांधी जी के अ¨हसा के सिद्धांत को वैश्विक आधार देने में स्व. अदील अब्बासी का भी नाम आता है। गांधी जी द्वारा चलाए गए स्वदेशी अपनाओ आंदोलन से प्रेरित होकर लखनऊ में स्वदेशी की पहली दुकान खोलने का श्रेय मौलाना हसरत मोहानी और काजी अदील अब्बासी को जाता है। यह आजाद भारत के स्वर्ण इतिहास में दर्ज है।

अदील अब्बासी के छोटे भाई काजी जलील अब्बासी भी आजादी के लड़ाई में पीछे नहीं थे। इन्हीं के परिवार के सदस्य एवं उनके भतीजे मो. फरीद अब्बासी सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य बताते हैं कि जंगे आजादी का ऐलान सुनकर काजी जलील अब्बासी भी आंदोलन में शिरकत करने लगे। वे अंग्रेजों के खिलाफ लखनऊ विश्वविद्यालय में कायम की गई स्टूडेंट फेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत हुए। कुछ ही दिनों बाद अंग्रेजों ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया और बनारस सेन्ट्रल जेल में कैद कर दिया। इसके अलावा बस्ती जेल में भी कई महीनों तक अपने साथियों के साथ कैद रहे। इनके गिरफ्तार हो जाने के बाद साथी सेनानियों ने लखनऊ विश्वविद्यालय में अब्बासी डे मनाकर अंग्रेजों को जलील अब्बासी की क्षमता और दक्षता का एहसास कराया। जब काजी जलील ने लखनऊ आंदोलन का नेतृत्व किया था तब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि मुझे ऐसे नौजवानों पर गर्व है।

अ¨हसा और असहयोग आंदोलन के एक बड़े सिपाही के नाम से विख्यात काजी जलील अब्बासी स्वतंत्र भारत में उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य, मंत्री और अंत में डुमरियागंज लोकसभा सदस्य बने। सिद्धार्थनगर के सृजन में भी इनका अहम योगदान रहा। आज भी इन्हें सिद्धार्थनगर जनपद का जनक माना जाता है। सांप्रदायिक सौहार्द के प्रणेता थे दोनों भाई

कई बुजुर्ग आज भी मानते हैं कि यदि कहीं सांप्रदायिक तनाव होता था तो काजी चाचा अकेले आते और तनावग्रस्त गांव में अमन शान्ति कायम करके ही वापस जाते थे।


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