संघर्ष की स्याही से लिख दी सफलता की इबारत, पढ़ें- बंटवारे के समय पाकिस्तान से गोरखपुर आए मोतीराम की दर्दभरी कहानी
Painful Story of Indo-Pak Partition भारत पाकिस्तान के बंटवारे के समय पाकिस्तान के सिंध प्रांत से गोरखपुर सैकड़ों की संख्या में सिंधी और सिख समाज के लोग गोरखपुर आकर बसे। इस समाज के लोगों ने अपनी मेहनत से सफलता की नई कहानी लिख दी।
गोरखपुर, जागरण संवाददाता। घरों में आग लगा दी जा रही थी। जुलूस निकालकर पाकिस्तान छोड़ने की धमकी दी जा रही थी। चारो ओर मारकाट मची हुई थी। हर रात अंतिम रात लगती थी। ऐसे में न चाहते हुए भी पुश्तैनी घर और जमा-जमाया कारोबार छोड़कर भागना पड़ा। रिफ्यूजी कैंप में महीनों गुजारने पड़े। परिवार पालने और कारोबार को फिर से जमाने के लिए संघर्ष लंबा संघर्ष करना पड़ा। डेढ़ दशक के संघर्ष के बाद जीवन पटरी पर आया। फिर ऐसी समृद्धि हासिल की कि शहर के प्रतिष्ठित व्यवसाइयों की फेहरिस्त में शामिल हो गए। यह कहानी है मोतीराम आनंद की, जिन्होंने भारत-पाक विभाजन में मिले दंश को झेला है और कड़ी मेहनत से सफलता की इबारत लिखी है।
जमा-जमाया घर-बार और कारोबार छोड़कर पाकिस्तान से आए मोतीराम आनंद
94 वर्ष के हो चुके मोतीराम जी से जब विभाजन से मिले दंश की चर्चा छेड़ी गई तो वह फ्लैशबैक में चले गए। बताया कि जब विभाजन को लेकर मारकाट मची हुई थी तो वह हाईस्कूल के छात्र थे और उनकी उम्र 20 के करीब रही होगी। पिताजी गुजर चुके थे और ताऊ जी का गल्ले का जमा-जमाया कारोबार था। मूल से पाकिस्तान के हजारा जिले के रहने वाले मोतीलाल ने बताया कि उन्हें और उनके परिवार को रातों-रात घर छोड़कर भारत के लिए निकलना पड़ा।
कष्ट मिला पर हार नहीं मानी, कड़ी मेहनत से पा ली पुश्तैनी समृद्धि
एबटाबाद से ट्रेन के जरिये पटियाला पहुंचे। पटियाला के रिफ्यूजी कैंप में करीब महीना भर गुजारने के बार गोरखपुर से रिश्तेदारों का बुलाया आया तो यहां चले आए। गोरखपुर में भी एयरफोर्स के रजही रिफ्यूजी कैंप में करीब दो महीने गुजारने पड़े। फिर मोहद्दीपुर में किराए का घर लेकर अनाज बेचने का पुराना काम शुरू किया। इसी बीच किरोसिन तेल और नमक की कोटे की दुकान मिल गई तो उसे चलाने लगे।
शादी हुई, बच्चे हुए तो जिम्मेदारी बढ़ती गई और ज्यादा कमाने की मजबूरी हो गई। ऐसे में कूड़ाघाट में किराने की दुकान खोली, जो चल निकली और करीब 15 वर्ष की मशक्कत के बाद पुरानी समृद्धि लौटती सी दिखने लगी। जब बेटे महेंद्र पाल आनंद को पढ़ाई पूरी करने के बाद घरेलू की एजेंसी पाने में सफलता मिल गई तो समृद्धि की रही-सही कसर भी पूरी हो गई। आज विभाजन से मिले दंश की यादें बस रह गई हैं।