यहां है किताबों का संसार, अध्ययन के साथ ही चलता था बहस-मुबाहिसों का दौर Gorakhpur News
गोरखपुर के बुद्धिजीवियों को होम क्लेन के रूप में पहली लाइब्रेरी का तोहफा 1925 में ही मिल गया था। यह किताबों के संसार के रूप में प्रसिद्ध था।
गोरखपुर, जेएनएन। एक दौर था, जब किसी शहर की बौद्धिकता, वहां मौजूद लाइब्रेरियों की तादाद और उसके स्तर से मापी जाती थी। लाइब्रेरियों के सदस्यों की संख्या से इसका अंदाजा भी लगाया जाता था कि शहर में कितने बौद्धिक हैं। नई पीढ़ी शायद नहीं जानती कि उस दौड़ में अपना गोरखपुर भी अगली पंक्ति में था। प्राचीनता और बौद्धिक समृद्धि दोनों लिहाज से। प्राचीनता की बात करें तो गोरखपुर के बुद्धिजीवियों को होम क्लेन के रूप में पहली लाइब्रेरी का तोहफा 1925 में ही मिल गया था। शहर में मौजूद राजकीय लाइबे्ररी, राहुल सांकृत्यायन लाइब्रेरी, पूर्वोत्तर रेलवे लाइब्रेरी, गोरखपुर विश्वविद्यालय लाइब्रेरी जैसी एक दर्जन लाइब्रेरियों की फेहरिस्त बौद्धिक समृद्धि की तस्दीक हैं। हालांकि बौद्धिकता की समृद्धि का यह पैमाना डिजिटाइटेशन के दौर में बेमानी होता जा रहा है, बावजूद इसके शायद ही किसी का इससे इत्तेफाक हो कि लाइब्रेरियों की जरूरत अब समाप्त हो गई है। आइए याद करते है गोरखपुर की लाइब्रेरियों के स्वर्णिम इतिहास को।
अध्ययन के साथ ही होती थी बहस
पहले शांति भाव के साथ पत्र-पत्रिकाओं का पूरी गंभीरता के साथ अध्ययन और उसके बाद बहस-मुबाहिसों का लंबा दौर। यह दृश्य कभी गोरखपुर की सभी प्रमुख लाइब्रेरियों में आम होता था। दीवारों पर टंगे शांति बनाए रखने के बोर्ड, पठन-पाठन के दौरान जहां पूरी तरह सार्थक होते थे, वहीं बहस के दौरान वह निरर्थक से लगने लगते थे। इन सबके बीच एक बात जो कॉमन होती थी, वह थी बहस की सार्थकता। पर्याप्त संख्या में बहस के श्रोताओं की मौजूदगी उस सार्थकता पर मुहर लगाती थी। प्रो. रामचंद्र तिवारी, प्रो. परमानंद श्रीवास्तव, प्रो. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी, माधव मधुकर, इतिहासकार हरिशंकर श्रीवास्तव, गुंजेश्वरी प्रसाद, डॉ. भगवती सिंह जैसी शख्सियतें लाइब्रेरी में जमने वाली महफिलों का अनिवार्य रूप से हिस्सा हुआ करती थीं। यहां तक कि मशहूर साहित्यकार केदार नाथ सिंह भी गोरखपुर आने के दौरान लाइब्रेरी पहुंचने का मोह नहीं छोड़ पाते थे। 70 से 90 के दशक में यह सिलसिला चरम पर था।
होम क्लेन लाइब्रेरी में जुटते थे शहर के बौद्धिक
शहर के सबसे पुरानी लाइब्रेरी का जिक्र आते ही नगर निगम के होमक्लेन लाइब्रेरी का नाम तत्काल जेहन में आता है। 1925 में स्थापित इस लाइब्रेरी का नाम आज की तारीख में बदलकर राहुल सांकृत्यायन भले ही कर दिया लेकिन इसे लेकर पुराने लोगों की यादें अभी भी होमक्लेन के दौर में ही बसी हैं। नगर निगम की लाइब्रेरी को उस दौर की बुद्धिजीवियों की अमन-ओ-अमन सभा ने स्थापित किया था। उद्देश्य था पठन-पाठन के शहर के बुद्धिजीवियों को प्लेटफार्म देना। सभा अपने उद्देश्य में सफल भी रही क्योंकि शहर के करीब सभी बुद्धिजीवियों के पांव इस लाइब्रेरी में समय-समय पर जरूर पड़े हैं। किताबों को पढऩे और फिर किसी मुद्दे को केंद्र में रख-रख गरमा-गरम बहस करने के उस दौर को याद कर चश्मदीदों की आंखें आज भी चमक जाती हैं। हालांकि डिजिटाइजेशन के प्रभाव में यह लाइब्रेरी आज की तारीख में उपेक्षित सी हो गई है लेकिन इसका प्रासंगिकता को कोई नकार नहीं सकता। पुस्तकालय में बहुत सी ऐसी दुर्लभ पुस्तकें हैं, जो प्रिंट से बाहर हो चुकी हैं। पुस्तकालय में आज भी करीब 15 हजार किताबें मौजूद हैं।
फक्र की बात थी राजकीय लाइब्रेरी की सदस्यता
आजादी के बाद शहर के बुद्धिजीवियों को पाठन-पाठन का ठीहा बढ़ाने के उद्देश्य से जुबिली कॉलेज परिसर में राजकीय लाइब्रेरी स्थापित की गई। यह 1958 की बात है। कोलकाता के राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी से इसे जोड़ा गया ताकि किताबों की उपलब्धता के नजरिए से इसकी समृद्धि बरकरार रहे। उद्देश्य में सफलता भी मिली। उन्नीसवीं सदी के सातवें-आठवें दशक में इस लाइब्रेरी का सदस्य बनने की होड़ सी मची रहती थी। खुद को लाइब्रेरी का सदस्य बताकर लोग फक्र महसूस करते थे। किताबों को पढऩे साथ बहस-मुबाहिसों का जो दौर उन दिनों लाइब्रेरी खुलने के साथ शुरू होता था, वह बंद होने के बाद ही थमता था। बौद्धिक वर्ग में राजकीय लाइब्रेरी की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसकी प्रेरणा से और इसके दायरे में शहर और आसपास के क्षेत्र में कई लाइब्रेरी स्थापित हो गई। आवागमन की समस्या की वजह से लाइब्रेरी की शाखाओं का विस्तार हुआ। हालांकि आज की तारीख में इनमें से ज्यादातर बंद हो चुकी हैं। नई स्थापित लाइब्रेरियों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी संख्या में लोग राजकीय लाइब्रेरी से जुड़ गए। लाइब्रेरी कितनी समृद्ध थी, इस तथ्य से जाना जा सकता है कि आज भी लाइब्रेरी में हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी भाषा की 45 हजार किताबें मौजूद हैं। लाइब्रेरी के रजिस्टर पर बतौर सदस्य 3500 पाठकों के दर्ज नाम इसकी लोकप्रियता की गवाही हैं। फिलहाल लाइब्रेरी के जीर्णोद्धार की प्रक्रिया चल रही है।
ऐसे बढ़ा था राजकीय लाइब्रेरी का संसार
प्रेरणा पुस्तकालय, वारा नगर गोला
नेहरू अध्ययन केंद्र, भौवापार
यज्ञानंद पुस्तकालय, टिकरियां सहजनवां
वाणी पुस्तकालय, बेतियाहाता
सिद्धार्थ पुरस्कालय, सीहापार, सहजनवां
श्रीरामराज उपाध्याय पुस्तकालय, रानीपार, सहजनवां
पं. दीनदयाल उपाध्याय पुस्तकालय
बुद्धा वाचनालय, सेवा प्रशिक्षण संस्थान, मोहद्दीपुर
चार लाख किताबों से सजती है विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी
गोरखपुर विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी उसकी स्थापना के साथ ही अस्तित्व में आ गई। आज की तारीख में इसमें पांच संकाय के पंद्रह हजार विद्यार्थियों के लिए चार लाख से अधिक पुस्तकें मौजूद हैं। वहां बड़ी संख्या में मौजूद दुर्लभ ग्रंथ शोधकर्ताओं की जरूरत को भी बखूबी पूरा करते हैं। गांधी हाल का विशाल संदर्भ कक्ष शोध करने वालों के लिए ही समर्पित है। वहां नेत्रहीन दिव्यांगों के लिए ब्रेल लिपि के कंप्यूटर भी लगाए गए हैं। समय की मांग के मुताबिक अब डिजिटल लाइब्रेरी भी है। एक दौर था जब इसी लाइब्रेरी एक तरफ साहित्य, समाज और राजनीतिक पर गंभीर बहस होती थी तो दूसरी तरफ विश्वविद्यालय के छात्रनेता छात्र राजनीतिक की दिशा तय करते थे।
रेलवे लाइब्रेरी पर बुद्धिजीवियों को रहा है गुमान
पूर्वोत्तर रेलवे के गठन के बाद 1960 में स्थापित इसकी सेंट्रल लाइब्रेरी वैसे तो रेलवे के कर्मचारियों के लिए बनाई गई थी लेकिन इसकी किताबी समृद्धि को लेकर गोरखपुर ही नहीं समूचे पूर्वांचल के लोगों को गुमान था और है भी। कोई भी किताब नहीं मिलती तो हर व्यक्ति यही कहता दिखता कि 'रेलवे की लाइब्रेरी में देख लें'। लोगों का यह विश्वास यूं ही नहीं है, लाइब्रेरी है ही ऐसी। यहां ङ्क्षहदी विश्वकोश, आजादी से पहले के गजेटियर, रेलवे की दुर्लभ पांडुलिपियां सहित 18वीं सदी की पुस्तकें भी संरक्षित हैं। महात्मा गांधी, नेहरू, आंबेडकर, ओशो और श्रीअरविंद की किताबों के कलेक्शन भी हैं। साहित्यिक किताबों के अलावा यहां आपको वेद- पुराण भी पढऩे को मिल जाएगा। कभी इस लाइब्रेरी में 80 हजार से अधिक पुस्तकें थी। आज भी यहां करीब 40 हजार पुस्तकें हैं। समय के हिसाब से लाइब्रेरी को अपडेट किया गया है। आज पूरी लाइब्रेरी रेलवे की वेबसाइट पर मौजूद है। एक क्लिक में पुस्तक की उपलब्धता की जानकारी मिल जाती है। हालांकि इसके सदस्य तो रेलकर्मी ही बन सकते हैं लेकिन वहां जाकर किताब कोई भी व्यक्ति पढ़ सकता है। इस सहूलियत के चलते ही शहर के सभी बुद्धिजीवियों ने रेलवे लाइब्रेरी की सुविधा का लाभ शुरू से लिया है।