Lockdown 3: रमजान : सदी के सफर में नहीं देखा ऐसा मंजर Gorakhpur News
105 साल के बुजुर्ग गुलाम नबी खां का कहना है कि रमजान में मस्जिदों में वीरानापन अब तक नहीं देखा। वह कहते हैं जरूर यह हमारे गलत कामों का नतीजा है। अन्यथा कोरोना नहीं आता।
गोरखपुर, जेएनएन। जिन आंखों ने एक सदी देखी है और 95 सालों से रमजान की इबादत में झुकती आईं हैं, वे भींग जाती हैं नमाजियों से खाली मस्जिदों पर लगे तालों को देखकर। वैश्विक महामारी कोरोना के दौर में लॉकडाउन के बीच यह एहसासात हैं 105 साल के बुजुर्ग गुलाम नबी खां के। वे कहते हैं इन नजरों ने बहुत से इंकलाब देखे हैं मगर रमजान में मस्जिदें वीरान नहीं देखी।
अब तो नमाजी भी न रहे
'सदी के सफर में नहीं देखा ऐसा मंजर। यह कहने के साथ ही उनका चेहरा मन में उपजे दर्द से जर्द होने लगता है, आंखें डबडबा जाती हैं। वह कहते हैं, मशहूर कहावत थी मोहर्रम के गाजी और रमजान के नमाजी। लेकिन, अब तो नमाजी भी न रहे।
हमारे गलत कामों का नतीजा है यह
नबी खां इसे अपने आत्मिक नजरिए से देखते हैं। बोल पड़ते हैं, जरूर यह हमारे गलत कामों का नतीजा है कि रब ने हम लोगों को अपने घर से निकाल दिया। अन्यथा यह वीरानगी नहीं होती, हम अपने घरों में कैद नहीं होते।
दस साल की उम्र से रख रहे रोजा
शहर के ऊचवां निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक गुलाम नबी खां दस साल की उम्र से रोजा रख रहे हैं। उनके जुनून व इबादत के आगे उम्र ने भी घुटने टेक दिए हैं। राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित नबी सात बार हज कर चुके हैं और आजादी के बाद हुए सभी तरह के चुनाव में मतदान कर चुके हैं।
पांचो वक्त नमाज करना नहीं भूलते
उन्होंने आजादी से पहले और उसके बाद का रमजान भी देखा है। लॉकडाउन के चलते मस्जिद नहीं जा सकते इसलिए घर पर ही पांचों वक्त की नमाज के साथ-साथ तरावीह और रात दो बजे तहज्जुद की नमाज पढऩा नहीं भूलते। रोजाना तीन घंटे कुरान की तिलावत करते हैं। हर वक्त हाथों में तस्बीह व जुबां पर अल्लाह का नाम रहता है।
प्रेरणास्रोत हैं नबी खां
नबी खां के पोते मोहम्मद शादाब बताते हैं कि दादाजी नौजवानों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उन्हें देखकर कई लोगों ने पाबंदी के साथ नमाज पढऩा सीखा है। ऐसे लोग इस जमाने में कहां मिलेंगे।
सलीके से जिदंगी जीने का प्रशिक्षण है रोजा
चिलमापुर निवासी हाजी सुभानल्लाह का कहना है कि माह-ए-रमजान अल्लाह की ओर से हमें मिला रहमतों और बरकतों का महीना है। समूची मानव जाति को प्रेम, भाईचारा और इंसानियत का संदेश देने वाले इस पाक महीने में अल्लाह अपने बंदों पर रहमतों का खजाना लुटाता है। भूखे-प्यासे रहकर खुदा की इबादत करने वालों के गुनाह माफ हो जाते हैं। इस समय दोजख (नरक) के दरवाजे बंद हैं, सिर्फ जन्नत की राह खुली है, इसलिए खूब नेक काम करें। जितना संभव हो दूसरों की मदद करें। इस महीने का पहला हिस्सा दया है, मध्य भाग माफी है और आखिरी हिस्सा नरक से मुक्ति है। दूसरा भाग शुरू हो चुका है। रमजान को नेकियों का मौसम भी कहा जाता है। यह महीना समाज के गरीब और जरूरतमंद बंदों के साथ हमदर्दी का है। कोरोना महामारी के बीच हमारी जिम्मेदारी और बढ़ गई है। खुदा के नेक बंदे रोजा रखें और घरों में ही रहें। रोजा सलीके से जिदंगी जीने का प्रशिक्षण है। इबादत कर खुदा की राह पर चलने वाले इंसान का जमीर रोजेदार को एक नेक इंसान के व्यक्तित्व के लिए जरूरी हर बात की तरबियत (सीख) देता है। पूरी दुनिया की कहानी भूख, प्यास और इंसानी ख्वाहिशों के इर्द-गिर्द घूमती है और रोजा इन तीनों चीजों पर नियंत्रण रखने की साधना है।