ऐसे बढ़ती है बदजुबानी, नहीं रह गया है लोकतंत्र का मैत्रीभाव
जहां भाष समाप्त हो जाती है वहीं से बदजुबानी शुरू होती है। भाषा एक दूसरे को समझने के लिए ही नहीं है अपितु उससे हमारी स्थिति का भी पता चलता है।
By Edited By: Published: Tue, 23 Apr 2019 10:26 AM (IST)Updated: Tue, 23 Apr 2019 11:38 AM (IST)
गोरखपुर, जेएनएन। साहित्य अकादमी के सदस्य एवं गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. चित्तरंजन मिश्र ने कहा कि लोकतंत्र का अर्थ केवल चुनाव करा लेना व सरकार का गठन कर लेना भर नहीं है, यह हमारी चेतना के निर्माण का मामला है। समानता, स्वतंत्रता और मैत्री, लोकतंत्र की बुनियाद हैं। आज लोकतंत्र का मैत्रीभाव नहीं रह गया है।
चुनाव जीतना ही राजनीतिक दलों का एकमात्र लक्ष्य बन गया है और जब चुनाव जीतना ही लक्ष्य होगा तो बदजुबानी तो बढ़ेगी ही। प्रो. मिश्र दैनिक जागरण कार्यालय में 'क्यों बढ़ती जा रही है चुनावी बदजुबानी' विषय पर आयोजित विमर्श को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि हमने मान लिया है कि शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव निपट जाना ही लोकतंत्र की सफलता है। हमारे समाज का मैत्रीभाव कमजोर हो रहा है। ऐसा होने पर हम दूसरों के बारे में असहिष्णु हो जाते हैं। भाषा, सिद्धांत व दर्शन नहीं बचता है।
आज ऐसी स्थिति है कि जो सत्ता में बैठा है, वह सत्ता में बना रहना चाहता है और जो प्रतिपक्ष में है वह उसे हटाकर सत्ता में आना चाहता है। लोकतांत्रिक सरकारों की सारी योजनाएं चुनाव को ध्यान में रखकर बनती हैं। उन्होंने कहा कि जब औपचारिक जीवन स्वार्थो से भरेगा, लोकतंत्र का आदर्श पीछे चला जाएगा और भाषा खराब होगी। हम स्वयं को क्या समझते हैं, उससे हमारा आचरण, विचार व भाषा तय होती है। यह तय करने का जिम्मा ओहदेदार लोगों का होता है।
उनका जिम्मा मर्यादा को बचाना और उससे भी अधिक नई मर्यादा को स्थापित करना है। जब ऐसे लोगों की भाषा बिगड़ती है तो उसका असर समाज पर पड़ता है। प्रो. मिश्र ने कहा कि यह बदजुबानी केवल चुनावी नहीं है, यह ज्यादा बड़ी है। आज राजनीतिक मंचों पर दूसरों को छोटा बताकर स्वयं को बड़ा बनाया जाता है। प्रो. मिश्र ने कहा कि चिंता इस बात की नहीं है कि ओहदेदारों की भाषा खराब हो रही है, चिंता यह है कि उनकी खराब भाषा, समाज में अच्छी भाषा के रूप में स्थापित हो रही है। भाषा केवल अकेला सवाल नहीं है, यह संस्कृति, सभ्यता, चेतना, समाज के संचालन, अपनी बात रखने व स्वाधीनता से जुड़ा सवाल भी है। शब्द की सत्ता प्रकाश की सत्ता होती है, इस पर खतरा है तो समाज पर खतरा है।
चुनाव जीतना ही राजनीतिक दलों का एकमात्र लक्ष्य बन गया है और जब चुनाव जीतना ही लक्ष्य होगा तो बदजुबानी तो बढ़ेगी ही। प्रो. मिश्र दैनिक जागरण कार्यालय में 'क्यों बढ़ती जा रही है चुनावी बदजुबानी' विषय पर आयोजित विमर्श को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि हमने मान लिया है कि शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव निपट जाना ही लोकतंत्र की सफलता है। हमारे समाज का मैत्रीभाव कमजोर हो रहा है। ऐसा होने पर हम दूसरों के बारे में असहिष्णु हो जाते हैं। भाषा, सिद्धांत व दर्शन नहीं बचता है।
आज ऐसी स्थिति है कि जो सत्ता में बैठा है, वह सत्ता में बना रहना चाहता है और जो प्रतिपक्ष में है वह उसे हटाकर सत्ता में आना चाहता है। लोकतांत्रिक सरकारों की सारी योजनाएं चुनाव को ध्यान में रखकर बनती हैं। उन्होंने कहा कि जब औपचारिक जीवन स्वार्थो से भरेगा, लोकतंत्र का आदर्श पीछे चला जाएगा और भाषा खराब होगी। हम स्वयं को क्या समझते हैं, उससे हमारा आचरण, विचार व भाषा तय होती है। यह तय करने का जिम्मा ओहदेदार लोगों का होता है।
उनका जिम्मा मर्यादा को बचाना और उससे भी अधिक नई मर्यादा को स्थापित करना है। जब ऐसे लोगों की भाषा बिगड़ती है तो उसका असर समाज पर पड़ता है। प्रो. मिश्र ने कहा कि यह बदजुबानी केवल चुनावी नहीं है, यह ज्यादा बड़ी है। आज राजनीतिक मंचों पर दूसरों को छोटा बताकर स्वयं को बड़ा बनाया जाता है। प्रो. मिश्र ने कहा कि चिंता इस बात की नहीं है कि ओहदेदारों की भाषा खराब हो रही है, चिंता यह है कि उनकी खराब भाषा, समाज में अच्छी भाषा के रूप में स्थापित हो रही है। भाषा केवल अकेला सवाल नहीं है, यह संस्कृति, सभ्यता, चेतना, समाज के संचालन, अपनी बात रखने व स्वाधीनता से जुड़ा सवाल भी है। शब्द की सत्ता प्रकाश की सत्ता होती है, इस पर खतरा है तो समाज पर खतरा है।
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