चौपाल/ दो गज की दूरी घूस है जरूरी...बुरा न मानिए साहब, यही परंपरा है
गोरखपुर के पुलिस महकमे के अंदर की कहानी। दैनिक जागरण गोरखपुर के साप्ताहिक कॉलम चौपाल में यहां पढ़ें गोरखपुर पुलिस की हर वह खबर जो अब तक परदे के पीछे है। दैनिक जागरण की आंखों से देखें कि पुलिस विभाग में क्या चल रहा है।
गोरखपुर, जितेन्द्र पाण्डेय। कोरोना ने बहुत कुछ सिखा दिया अपने इंस्पेक्टर साहब को। वह तो अब घूस भी फिजिकल डिस्टेंसिंग के साथ लेते हैं। इससे वह किसी की नजर में भी नहीं आते और रकम भी अच्छी मिल जाती है। वह तो सरयू मइया की कसम खाकर कहते हैं कि कोरोना काल में खुद किसी से घूस नहीं लिया। उन्होंने पड़ोस के जिले से एक गबरू नौजवान को पकड़ लिया है। वह थाने की सरकारी जीप भी चलाता है। वसूली करता है और पकड़े जाने पर बदमाशों की कुटाई भी करता है। पिछली बार तो यह मामला जिले वाले साहब के संज्ञान में आ गया। साहब सख्त हुए तो इंस्पेक्टर साहब ने कुछ दिन के लिए नौजवान को काम से हटा दिया था। लेकिन उनके स्थानांतरित होते ही नौजवान फिर थाने पर पहुंचकर अपने काम में जुट गया है। इधर इंस्पेक्टर साहब ज्ञान बांट रहे हैं- दो गज की दूरी घूस है जरूरी।
बुरा न मानिए साहब, यही परंपरा है
अपने इंस्पेक्टर का ज्यादा वक्त थानेदारी में गुजरा है। जिंदगी भर अधीनस्थों को समझाते आए कि कोई भी मुकदमा ऐसे ही लिख लिया तो थानेदारी कैसी। दो माह पहले वह और एक दारोगा सेवानिवृत्त हुए। किसी ने दोनों की गाढ़ी कमाई खाते से उड़ा दी। दोनों मुकदमा लिखवाने थाने गए। वहां के थानेदार ने भी दारोगा जी व इंस्पेक्टर साहब के साथ वही सलूक किया, जो यह अब तक दूसरों के साथ करते आए हैं। थानेदार ने समझाया कि ऐसे मामले कहां खुलते हैं। इंस्पेक्टर साहब ने बतया कि नौकरी में तुमसे 16 वर्ष सीनियर हूं। किसी तरह से थानेदार ने मुकदमा लिखा लेकिन दारोगा जी को तो वापस भेज दिया। सप्ताह भर तक दारोगा जी के पुत्र एसएसपी कार्यालय की परिक्रमा करते रहे तब उनका भी मामला लिखा गया। इंस्पेक्टर साहब ने आप बीती एक दिन बतायी तो मैने भी उनका धीरज बंधाया कि बुरा न मानिए। यही परंपरा है।
इस अस्पताल में सिर्फ कागज का होता इलाज
कोरोना का बहादुरी से मुकाबला करने वाले पुलिस कर्मियों के लिए भी एक अस्पताल है। लेकिन वहां उनका नहीं, बल्कि कागजों का इलाज होता है। उसका भी समय है कि सुबह नौ बजे से लेकर दोपहर 12 बजे तक। उसके बाद मुलाकात तो पोस्टमार्टम हाउस पर ही होगी। आप बीमार पड़े हों या न पड़े, इलाज की भारी भरकम रकम चाहिए तो अस्पताल जाना होगा। अस्पताल सरकारी है लेकिन शुल्क आपको प्राइवेट का भरना होगा। फीस मिलने के बाद आपके जटिल पेपर स्वास्थ्य कर्मी ही तैयार कर देंगे। आपका प्रस्ताव भी बनकर चला जाएगा। यहां आपका इलाज भले न हो, लेकिन जितनी फीस आप भरते हैं, उसका कई गुना दाम बाद में आपको मिल ही जाएगा। कई पुलिस कर्मियों ने तो क्षतिपूर्ति के मिले रुपयों से ही अपने लिए लग्जरी गाड़ी खरीदी है। ठीक भी है, जब विभाग ही उन पर मेहरबान है तो वह जनता को क्यों परेशान करें।
भइया यह मुर्दों वाले डाक्टर कहां मिलेंगे
चंदू चाचा पखवारे भर से बेहद परेशान हैं। उन्हें कहीं से खबर मिली कि शहर में एक डाक्टर मुर्दों का इलाज करते हैं। उनके अस्पताल पर रात भर एक मुर्दे का उपचार हुआ और सुबह मृतक के स्वजन से 70 हजार रुपये मांगे गए। विवाद हुआ तो अस्पताल प्रशासन ने शव वापस किया। लोग डाक्टर पर इल्जाम भले कुछ भी लगाएं, लेकिन चंदू चाचा का मानना है कि उपचार के दौरान कुछ देर के लिए ही सही मुर्दा जिंदा जरूर हुआ होगा। अन्यथा इतनी महंगी दवाएं, जांच आखिर किसकी हुई। चाचा की चाची का तीन वर्ष पूर्व निधन हो गया था। उनके साथ कई राज दफन हो गए हैं। चाचा का मानना है कि डाक्टर साहब चाची को सिर्फ घंटे भर के लिए ही सही जिंदा कर देते तो उनसे उस राज की जानकारी ले लेता। इसीलिए चाचा लोगों से पूछ रहे हैं- भइया, यह मुर्दों वाले डाक्टर कहां मिलेंगे।