चीनी के मुकाबले फीकी पड़ी गुड़ की मिठास
पुराने दौर में गुड़ की महत्ता को हमारे पूर्वज भलीभांति जानते थे। जगह-जगह क्रेशर लगा कर गन्ने की पेराई की जाती थी और फिर रस को पका कर गुड़ बनाया जाता था। यह गुड़ न सिर्फ लोग चाव के साथ खाते थे।
गोरखपुर, जागरण संवाददाता। पुराने दौर में गुड़ की महत्ता को हमारे पूर्वज भलीभांति जानते थे। सिद्धार्थनगर मेें जगह-जगह क्रेशर लगा कर गन्ने की पेराई की जाती थी और फिर रस को पका कर गुड़ बनाया जाता था। यह गुड़ न सिर्फ लोग चाव के साथ खाते थे, वरन् बहुत सारे लोगों के लिए रोजगार का साधन भी बना रहता था। परंतु बढ़ते आधुनिक दौर के बीच घटते संसाधन व बढ़ती मंहगाई के कारण चीनी के आगे गुड़ की मिठास गायब होती जा रही है। हालांकि चीनी के बढ़ते इस्तेमाल से ज्यादातर लोग मधुमेह की चपेट में भी आ रहे हैं। बावजूद इसके इस दिशा में गंभीर पहल नहीं की जा रही है।
छोटे उद्योग की तरह विकसित था गुड़ बनना
बड़े-बड़े डाक्टर भी गुड़ की महत्ता को भलीभांति जानते हैं। और पाचन के लिए इसे महत्वपूर्ण बताते हैं। एक जमाना था, जब जगह-जगह गन्ने की पेराई होती थी और गुड़ बनना छोटे-छोटे उद्योग का रूप लिए हुए था। परंतु मिलों के बढ़ते प्रचलन व सरकार की इस दिशा में बरती जा रही उदासीनता के कारण गुड़ की मिठास कम हो गई है।
उपेक्षा का शिकार हुआ गुड़ उद्योग
जानकारों का मानना है, कि अभी भी यदि शासन स्तर पर गंभीरता पूर्वक कदम उठाए जाएं, तो ये ग्रामीण क्षेत्र का धंधा फिर से चमक सकता है। मिलों की चकाचौंध व चीनी की बढ़ती मांग के बाद भी पिछले आठ सालों से अहिरौला ग्राम पंचायत के सुहेलवा डीह में क्रशर चलता था। यहां गन्ने की पेराई करने वाले 44 वर्षीय पुद्दन ने बताया कि हम किसानों से 250 रूपए प्रति क्विंटल गन्ना खरीदते हैं। उसकी पेराई कर बड़े कड़ाहे में रस को डालकर आग से पकाते हैं, पकाते समय रस को साफ करने के लिए भिन्डी का जड़ कूटकर डालते हैं। जिससे कचड़ा साफ हो जाता है, जिसे बाहर निकालकर फेंक दिया जाता है।
चीनी मिलों की वहज से बढ़ा गन्ने का मूल्य
पकने के बाद वह गाढ़ा हो जाता है तो उतारकर लकड़ी के चाक पर उड़ेल दिया जाता है, ठंडा होने पर गोल-गोल गुड़ बनाया जाता है। जिसे स्थानीय बाजारों में ले जाकर बेचते थे। अब गन्ने का मूल्य मिलों ने बढ़ा दिया है और तैयार गुड़ बिक्री में भी दिक्कत होती है, इसलिए यह कारोबार बंद कर देना पड़ा।