स्टेशन छूटा तो 57 परिवारों की संवर गई जिंदगी, जानें-कैसे कर रहे थे गुजारा Gorakhpur News
कुछ रेलवे स्टेशन के सामने कुछ बिछिया में तो कुछ जेल बाइपास रोड पर रोजगार करते हैं। कोई परिवार सब्जी बेचने में जुट गया कोई मोमोज की दुकान चला रहा है तो किसी की गुमटी में ही सही अपना किराना स्टोर है।
उमेश पाठक, गोरखपुर। गुडिय़ा का जीवन रेलवे स्टेशन पर ही गुजरता था। स्वयं के अलावा लावारिस हाल में घूमते दो बच्चों का जिम्मा भी उसके कंधों पर था। स्टेशन से बाहर होने के कारण कुछ समय तक सामाजिक संस्थाओं की ओर से खाने को मिला लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चलने वाला था। इस बीच गुडिय़ा घुमंतू बच्चों के बीच काम करने वाली संस्था सेफ सोसाइटी के संपर्क में आयी। संस्था ने उसकी आर्थिक सहायता कर जनरल स्टोर की दुकान खुलवा दी है। यहां गुडिय़ा दो से तीन सौ रुपये तक रोज कमा लेती है और साथ रह रहे दोनों बच्चों का पालन-पोषण भी कर रही है।
सहायता मिली तो सभी हो गए आत्मनिर्भर
गुडिय़ा की तरह ही करीब 57 ऐसे परिवार हैं जो स्टेशन से बाहर होने के कारण न केवल बेघर हो गए बल्कि उनकी आय का जरिया भी समाप्त हो गया। कोरोना से बचाव के प्रोटोकाल का पालन करने के कारण रेलवे स्टेशन पर दोबारा जाना इनके लिए संभव नहीं था। लाकडाउन के दौरान प्रशासन व स्वयं सेवी संस्थाओं की सहायता से उन्हें पेट भरने के लिए भोजन तो मिलता रहा लेकिन समय के साथ यह सहायता भी बंद होती गई। इस बीच स्टेशन पर ही काम करने वाली संस्था ने उन्हें स्थायी रूप से रोजगार से जोडऩे का निर्णय लिया और वहां रहने वाले परिवारों को चिन्हित किया। इन परिवारों को पांच से 10 हजार रुपये की आर्थिक सहायता देकर उन्हें रोजगार के लिए प्रेरित किया।
इस तरह से कर रहे रोजगार
कुछ रेलवे स्टेशन के सामने, कुछ बिछिया में तो कुछ जेल बाइपास रोड पर रोजगार करते हैं। कोई परिवार सब्जी बेचने में जुट गया, कोई मोमोज की दुकान चला रहा है तो किसी की गुमटी में ही सही, अपना किराना स्टोर है। गुडिय़ा की तरह ही इंद्रावती, सुमन, मीना के जीवन में छाया अंधेरा भी अब धीरे-धीरे दूर होने लगा है। उनके बच्चों को स्कूल खुलने की इंतजार है। इनमें से कोई भी परिवार अब दोबारा स्टेशन की जिंदगी में नहीं लौटना चाहता। इन्हीं में कई ऐसे युवा भी हैं जो स्टेशन पर गुटखा, पानी बेचना व कबाड़ बीनने जैसा काम करते थे। अब ये युवा बाहर निकलकर सामान्य जीवन जी रहे हैं। इनमें से मेहताब रिक्शा चलाते हैं, राजू, मुन्ना, रंजीत व सुरेंद्र की अंडे की दुकान है। सोनू व मनीष अंडे के साथ चाय भी बेचते हैं। शहंशाह सब्जी, गुड्डू भूजा तो सोनू भारती चाऊमीन व मोमो की दुकान लगाते हैं।
नजर रखती है संस्था
57 परिवारों को आत्मनिर्भर बनाने की ओर अग्रसर संस्था आर्थिक सहायता के बाद इस बात पर नजर भी रखती है कि वे ठीक से दुकान चला रहे हैं या नहीं। किसी-किसी की पूंजी कम पडऩे पर उसे दोबारा भी सहयोग दिया गया है। कमाई के साथ ही इन परिवारों को बचत करना भी सिखाया जा रहा है। इसके लिए फिलहाल तीन स्वयं सहायता समूह का गठन किया गया है। संस्था की सदस्य आयुषी कटियार इन परिवारों के संपर्क में रहती हैं। सेफ सोसाइटी के प्रोजेक्ट आफिसर ब्रजेश चतुर्वेदी का कहना है कि लाकडाउन के दौरान कई बच्चे अपने परिवार के साथ रेलवे स्टेशन से बाहर हो गए। स्टेशन ही उनकी आमदनी का जरिया था। संस्था की ओर से कई दिनों तक उन्हें राशन मुहैया कराया गया लेकिन लंबे समय के लिए यह संभव नहीं था। ऐसे में उन्हें आर्थिक सहायता देकर आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है। ये परिवार किसी न किसी रोजगार से जुड़े हैं। यह प्रक्रिया अभी जारी है।