अयोध्या विवाद से जुड़े कई अहम किरदार चल बसे,चाह नहीं हो सकी पूरी
रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद भले ही अंतिम परिणति की ओर हो पर विवाद इतना लंबा खिंचा कि यह दिन देखने के लिए विवाद से जुड़े कई अहम किरदार जिंदा नहीं रह गए हैं।
अयोध्या [रमाशरण अवस्थी]। देश की शीर्ष अदालत में आज सुनवाई शुरू होने के साथ रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद भले ही अंतिम परिणति की ओर हो पर विवाद इतना लंबा खिंचा कि यह दिन देखने के लिए विवाद से जुड़े कई अहम किरदार जिंदा नहीं रह गए हैं। 22-23 दिसंबर 1949 की रात रामलला के प्राकट्य के साथ मंदिर-मस्जिद का विवाद स्थानीय अदालत में पहुंचा।
रामलला के दर्शन-पूजन के लिए यदि रामचंद्रदास परमहंस ने स्थानीय अदालत में वाद दाखिल किया, तो विवादित स्थल से बमुश्किल डेढ़ किलोमीटर दूर कोटिया मोहल्ला के रहने वाले हाशिम अंसारी ने कथित मस्जिद से रामलला की मूर्ति हटाए जाने की आवाज बुलंद की। शुरू के कुछ दशक तक मंदिर-मस्जिद की गूंज अयोध्या और उसके जुड़वा शहर फैजाबाद तक ही सीमित थी। परमहंस मंदिर के और हाशिम मस्जिद के पैरोकार थे पर सिविल कोर्ट में मामले की पैरवी करने बार-बार आते-जाते परमहंस और हाशिम मित्रता के सूत्र में बंध गए। दोस्ती की डोर तब भी नहीं टूटी, जब मंदिर-मस्जिद विवाद में विहिप का प्रवेश हुआ और विवाद जनांदोलन के रूप में राष्ट्रव्यापी बना।
यह 1984 का दौर था। विवाद अदालत की परिधि से इतर की ओर चल पड़ा था और परमहंस-हाशिम में साथ कचहरी जाने का क्रम भी टूट चुका था। इसके बावजूद परमहंस एवं हाशिम के बीच की दोस्ती अटूट बनी रही। दोस्ती की मिसाल के साथ वे मंदिर-मस्जिद विवाद के प्रतीक के रूप में भी स्थापित हुए।
परमहंस मंदिर आंदोलन का चेहरा बनकर चमके और हाशिम तमाम झंझावात झेलते हुए मस्जिद की वकालत करते रहे। यह शायद हाशिम-परमहंस की दोस्ती का संस्कार था कि मंदिर की धुर दावेदारी और हिंदुत्व के तेवर के बीच परमहंस कारू मियां एवं चांद बीबी का नाम लेकर सौहार्द का संदेश देना नहीं भूलते थे, तो हाशिम जीवन के आखिरी वर्षों में रामलला के सम्मान की चिंता का खुलकर इजहार करने लगे थे।
बहरहाल, रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का स्वप्न दिल में ही दफन कर परमहंस 30 जुलाई 2003 को साकेतवासी हो गए। ...तो मसले के हल की चाह लिए हाशिम गत जुलाई माह में चल बसे। महंत भास्करदास, हाशिम और परमहंस के बीच त्रिकोण की तरह थे।
जिन दिनों रामलला का प्राकट्य हुआ, भास्करदास विवादित स्थल से लगे रामचबूतरा के पुजारी थे और उस निर्मोही अखाड़ा के मौके पर मौजूद प्रतिनिधि थे, जिसने 1959 में विवादित स्थल पर मालिकाना हक के लिए अदालत में वाद दाखिल किया।
भास्करदास अदालत की परिधि में मसले के हल के प्रतीक बने रहे। उतार-चढ़ाव के बीच वे मंदिर-मस्जिद विवाद के क्षितिज पर संयत रहे। इसी वर्ष अगस्त माह में रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर की उनकी साध अधूरी रह गई और वे चल बसे।
विहिप के शीर्ष संवाहक की हैसियत से अशोक सिंहल मंदिर आंदोलन के प्रधान शिल्पी थे। बताने की जरूरत नहीं कि मंदिर आंदोलन किस तान-तेवर से गुजरा और सिंहल की अगुवाई में मंदिर निर्माण शुरू किए जाने की तारीखें भी तय होते रहीं पर सिंहल स्वयं आखिरी के दो दशक तक मंदिर निर्माण की प्रतीक्षा करते-करवाते 17 नवंबर 2015 को दुनिया से कूच कर गए। विहिप के प्रांतीय प्रवक्ता शरद शर्मा कहते हैं, सिंहल जी नहीं हैं पर उनकी प्रेरणा जिंदा है।