रामनगरी अयोध्या के मनोरम किरदार थे हाशिम अंसारी
रामजन्मभूमि के लिए चुनौती बने हाशिम के लिए अयोध्या अभयारण्य बनी रही। यद्यपि ढाई दशक पूर्व मंदिर-मस्जिद विवाद तूल पकड़ने के साथ शासन की ओर से उन्हें कुछ अंगरक्षक मुहैया कराए गए थे ।
अयोध्या [रघुवरशरण] । राष्ट्रीय फलक पर हाशिम भले बाबरी मस्जिद के मुद्दई के तौर पर जाने जाते रहे पर रामनगरी में उनकी गणना मनोरम किरदार के रूप में होती रही है। इसमें कोई शक नहीं कि अयोध्या राम भक्तों की प्रधान नगरी है और यहां बसर करने वालों में 90 फीसदी रामभक्त हैं। वे चाहे साधु-संत हों या गृहस्थ। इसके बावजूद गत 66 वर्षों से रामजन्मभूमि के लिए चुनौती बने हाशिम के लिए अयोध्या अभयारण्य बनी रही।
रामजन्म भूमि केस में मुस्लिम पक्ष के पैरोकार हाशिम अंसारी का इंतकाल
यद्यपि ढाई दशक पूर्व मंदिर-मस्जिद विवाद तूल पकड़ने के साथ शासन की ओर से उन्हें कुछ अंगरक्षक मुहैया कराए गए थे पर हाशिम ने कभी इसकी परवाह नहीं की और जब जहां जी चाहा, जा पहुंचे। 2003 के पूर्व मंदिर आंदोलन के शलाका पुरुष रामचंद्रदास परमहंस जब तक जीवित थे, तब तक हाशिम यदा-कदा उनके आश्रम दिगंबर अखाड़ा पर भी नजर आ जाते रहे। हंसी-ठिठोली के साथ ताश की महफिल के हिस्सेदार के तौर पर भी। परमहंस से अपने रिश्तों पर हाशिम फख्र भी करते थे और कई बार यह इजहार कर चुके थे कि परमहंस से उनके अत्यंत आत्मीय रिश्ते थे। उन्हें वह दिन भी नहीं भूला था, जब एक ही इक्के पर बैठकर वे मस्जिद की पैरवी करने और परमहंस मंदिर की पैरवी करने फैजाबाद की अदालत में जाते थे।
यदि परमहंस जैसों की पीढ़ी के लिए वे चुहलबाज यार थे, तो उसके बाद की पीढ़ी के लिए हाशिम चचा एवं स्नेहिल बुजुर्ग। अदालत में उन्होंने लंबे अर्से तक बाबरी मस्जिद की पैरवी करने में पूरी प्रतिबद्धता बरती पर अदालत से बाहर वे सौहार्द के हामी और नरमी से सराबोर रहे। 1998-99 के दौरान उनके इस मिजाज की बखूबी तस्दीक हुई। तब फैजाबाद की अदालत में मामले की सुनवाई के दौरान गवाहों से तीखी जिरह हो रही थी, तो अदालत के बाहर हाशिम-परमहंस पूरे उत्साह से बगलगीर होते रहे। हालांकि उनके इस मिजाज का चरम सितंबर 2010 में मंदिर-मस्जिद विवाद का हाई कोर्ट से निर्णय आने के दौरान अभिव्यक्त हुआ। एक ओर देश दिल थामकर अदालत के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहा था, दूसरी ओर हाशिम अखाड़ा परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष महंत ज्ञानदास के साथ सद्भाव की मुहिम को धार देने में लगे।
उनकी इस कोशिश का बहुत माकूल प्रभाव पड़ा और यह संदेश प्रसारित हुआ कि मंदिर-मस्जिद का आग्रह अपनी जगह है पर भाईचारा सबसे बढ़कर है। उनके इस प्रयास से प्रेरित हो मनिंदरजीत सिंह बिट्टा जैसी शख्सियत उन्हें सलाम करने पहुंचीं। हाशिम का अंदाज मंदिर आंदोलन के शिल्पी अशोक सिंहल के निधन पर भी कायल करने वाला रहा। यद्यपि तेजाबी सिंहल और उनमें 36 का रिश्ता परिभाषित होता रहा पर उनके न रहने पर हाशिम ने शोक प्रकट किया और कहा कि सिंहल जैसे बहादुर के न रहने पर उन्हें मस्जिद की लड़ाई लड़ने में मजा नहीं आएगा। समाजसेवी गौरव तिवारी के अनुसार हाशिम देश-दुनिया के लिए बाबरी मस्जिद के दावेदार थे पर हमारे लिए वे मिली-जुली संस्कृति से सजी अयोध्या के सच्चे नुमाइंदे हैं।