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अयोध्या विवाद का एक और युगावसान

मोहम्मद हाशिम अंसारी के निधन से अयोध्या विवाद के एक युग का अवसान है।हाशिम ने 1961 से लेकर जीवन पर्यंत बाबरी के पर्याय के रूप में यह लड़ाई लड़ी।

By Nawal MishraEdited By: Published: Wed, 20 Jul 2016 07:26 PM (IST)Updated: Wed, 20 Jul 2016 10:59 PM (IST)
अयोध्या विवाद का एक और युगावसान

फैजाबाद-अयोध्या(रमाशरण अवस्थी)। मोहम्मद हाशिम अंसारी का निधन रामजन्मभूमि-बाबरी विवाद के एक युग का अवसान है। हाशिम 1961 में फैजाबाद की सिविल कोर्ट में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड की ओर से दाखिल वाद के 24 पक्षकारों में से एक थे पर उनका अंदाज ऐसा था कि वे कई दशक तक बाबरी की दावेदारी के पर्याय के तौर पर जाने-पहचाने गए।

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22-23 दिसंबर 1949 की रात विवादित ढांचे में रामलला के प्राकट्य के समय से ही उनका इस विवाद से सरोकार रहा, यद्यपि 16 जनवरी 1950 को अदालत में पहला वाद गोपाल सिंह विशारद बनाम जहूर आलम के नाम से दाखिल हुआ। गोपाल सिंह विशारद की मांग थी कि जिस स्थल पर रामलला का प्राकट्य हुआ, वहां रामलला की पूजा-अर्चना का हिंदुओं को अधिकार दिया जाए जबकि अयोध्या के ही जहूर आलम का कहना था कि वह बाबरी है और वहां मुस्लिम नमाज पढ़ते रहे हैं तो रामलला की मूर्ति हटाई जाए। उस समय हाशिम युवा थे और मामले की नियमित पैरवी के लिए तारीख पर अदालत जाने का दायित्व जहूर आलम सहित मुस्लिम समाज की ओर से उन्हें सौंपा गया। 90 फीसद रामभक्तों वाली नगरी में इस भूमिका को अंजाम देना आसान नहीं था पर मिलनसार हाशिम ने बगैर किसी अदावत के इस भूमिका का बखूबी निर्वहन किया और जब 1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने बाबरी के स्वामित्व का वाद दाखिल किया, तो हाशिम छठवें नंबर के वादी नामांकित हुए। मामले के 24 पक्षकारों में तीन अयोध्या के थे। वह तब भी विचलित नहीं हुए, जब अदालती लड़ाई से इतर विहिप ने राम मंदिर के लिए जनांदोलन खड़ा किया। 1984 में रामजन्मभूमि संकल्प यात्रा, दो फरवरी 85 को अदालत के आदेश पर विवादित ढांचे का ताला खुलने, 1987-88 के बीच शिलापूजन, 1990 में कारसेवा एवं 1992 में ढांचा ध्वंस के समय जहां एक ओर मंदिर आंदोलन तेज हो उठा, वहीं हाशिम अविचल भाव से बाबरी की पैरवी करते रहे।

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हालांकि 1992 में बाहर से आए कारसेवकों ने हाशिम के कोटिया स्थित आवास को आग के हवाले कर दिया पर स्थानीय हिंदुओं की तत्परता से वे और उनका परिवार सुरक्षित बच गया। इस घटना ने हाशिम पर गहरा असर डाला और वह रामनगरी की मिली-जुली संस्कृति के पैरोकार के तौर पर स्थापित हुए। उनकी यह चेतना गत वर्ष तब चरम पर परिभाषित हुई, जब उन्होंने कहा कि मंदिर के नाम पर कुछ लोग राजनीति कर रहे हैं और वह रामलला को आजाद देखना चाहते हैं।

पुत्र को पैरोकारी विरासत में सौंपी

गत वर्ष ही अपनी बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य को देखते हाशिम ने अपने पुत्र मोहम्मद इकबाल को अपना रजिस्टर्ड उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और उत्तराधिकार के रूप में बाबरी की पैरोकारी भी दे दी। रोजी-रोजगार में रमे रहने वाले इकबाल के लिए अदालती पैरवी करना तो संभव है पर वह अपने पिता की तरह विपक्ष के दावों और मीडिया की जिरह का सामना किस तरह करेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा।

बेअसर है हाशिम का न रहना

अयोध्या विवाद में निर्मोही अखाड़ा के अधिवक्ता रणजीतलाल वर्मा के अनुसार हाशिम के न रहने का विधिक रूप से कोई असर नहीं पड़ेगा। सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के संयोजन में मामले के दो दर्जन पैरोकार हैं ही, दूसरे हाशिम ने जीते-जी पक्षकार के तौर पर अपने पुत्र को नामांकित भी कर रखा है।


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