अयोध्या की 490 वर्ष पुरानी रार थमने के आसार, चार से सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
अयोध्या के रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद की दावेदारी के रूप में देश के जिस सबसे बड़े विवाद की सुनवाई चार जनवरी को होगी, उसकी जड़ें 490 वर्ष पुरानी है।
अयोध्या [रमाशरण अवस्थी]। भगवान राम की नगरी अयोध्या के रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद की दावेदारी के रूप में देश के जिस सबसे बड़े विवाद की सुनवाई चार जनवरी को होगी, उसकी जड़ें 490 वर्ष पुरानी है। इस विवाद के कोर्ट तक पहुंचने में 430 वर्ष का लंबा समय लग गया।
हिंदू पक्षकारों के अनुसार रामजन्मभूमि पर त्रेतायुगीन मंदिर था, जिसका समय-समय पर जीर्णोद्धार होता रहा और 1528 में मुगल आक्रांता बाबर के आदेश पर इसी मंदिर को तोड़ कर बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया गया। वहां मस्जिद तो बन गई पर यह कभी निरापद नहीं रह पाई। रामजन्म भूमि को मुक्त कराने का संघर्ष तभी से सतत प्रवाहमान है।
मुगलकाल से लेकर ब्रिटिश हुकूमत के दौर तक रामजन्मभूमि मुक्ति के लिए अनेक अभियान संचालित होने के प्रमाण मिलते हैं। संघर्ष के शुरुआती दिनों में हिंदू पक्ष को विवादित स्थल के सामने चबूतरा बनाने का अधिकार मिला और इसी चबूतरे पर मंदिर निर्माण कराने की इजाजत लेने के लिए निर्मोही अखाड़ा के तत्कालीन महंत रघुवरदास ने 1885 में सिविल कोर्ट का आश्रय लिया। महंत को राम चबूतरा पर मंदिर निर्माण की इजाजत तो नहीं मिली पर यह साफ हो गया कि सांप्रदायिक अस्मिता से खिलवाड़ करने वाला विषय अभियानों की बजाय अदालती निर्णय से भी तय हो सकता है। हालांकि इसके बाद भी इस विषय को लेकर अदालत का सफर तय करने में कई दशक लग गए और बीच-बीच में जोर-जबर्दस्ती से भी दावेदारी बयां होती रही।
मंदिर-मस्जिद को लेकर 1934 में स्थानीय स्तर पर दंगा हुआ और एक पक्ष ने उसी दौरान विवादित इमारत को काफी हद तक क्षति भी पहुंचाई। ब्रिटिश हुक्मरानों ने स्थानीय हिंदुओं पर कर लगाकर विवादित इमारत की मरम्मत कराई। इस विवाद को गुजरे डेढ़ दशक ही हुए थे, तभी 22-23 दिसंबर 1949 की वह रात आ गई, जब विवादित इमारत में रामलला के प्राकट्य का दावा किया गया। यह दौर विवाद को नए सिरे से अदालत में ले जाने वाला साबित हुआ।
महंत रामचंद्रदास परमहंस जैसे लोगों ने जहां विवादित इमारत में प्रकटे रामलला के दर्शन-पूजन का अधिकार मांगा, वहीं हाशिम जैसे लोग सामने आए, जिन्होंने इमारत से रामलला का बुत हटाए जाने की मांग की। इस विवाद के चलते संभवत: दोनों पक्षों में अदालत से जुड़ी संभावना जाग्रत हुई और विवादित स्थल के स्वामित्व का दावा लेकर निर्मोही अखाड़ा 1959 में एवं सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड 1961 में अदालत पहुंचा।
करीब पांच दशक तक लोअर कोर्ट तथा उसके बाद अपने स्तर से सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने मंदिर-मस्जिद विवाद का निर्णय तो किया पर वह किसी भी पक्ष को मान्य नहीं हुआ। दरअसल, हाईकोर्ट के निर्णय में विवादित स्थल को तीन हिस्सों में विभाजित किया गया, जिस स्थल पर रामलला विराजमान हैं, उसे रामलला को, रामलला के दक्षिण का हिस्सा सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को तथा सीता रसोई एवं रामचबूतरा का हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को दिए जाने का एलान किया गया।
संबंधित पक्षों की ओर से कहा गया कि यह विवाद मस्जिद अथवा मंदिर का था न कि बंटवारे का। हाईकोर्ट का निर्णय आने के एक वर्ष के अंदर ही दोनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। विधि विशेषज्ञों के अनुसार न्यायिक दृष्टि से यह विवाद पूरी तरह से पका हुआ है और कोर्ट को मसले के त्वरित निस्तारण में बहुत अड़चन नहीं होनी चाहिए।