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उगेगा उम्मीदों का सूरज, रोजी कमाने नहीं जाएंगे परदेस

लॉक डाउन के दौरान प्रवासियों ने जो मुसीबत झेली है वो अब उनके जेहन से नहीं उतर रही है। दूर दराज के शहरों से आए प्रवासी अपने दर्द को बयां करते हैं तो उनके आंसू छलक उठते हैं। उनका कहना था कि परदेस तो परदेस होता है। जब काम होता है तो सब मदद को तैयार होते हैं लेकिन काम निकलने के बाद उनकी कोई सुधि नहीं लेता। परदेस में जो अपमान व दुत्कार मिली है वे उसे भूल

By JagranEdited By: Published: Thu, 04 Jun 2020 11:26 PM (IST)Updated: Thu, 04 Jun 2020 11:26 PM (IST)
उगेगा उम्मीदों का सूरज, रोजी कमाने नहीं जाएंगे परदेस

मो. आसिफ, जसवंतनगर :

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लॉकडाउन के दौरान प्रवासियों ने जो मुसीबत झेली है वो अब उनके जेहन से नहीं उतर रही है। दूर दराज के शहरों से आए प्रवासी अपने दर्द को बयां करते हैं तो उनके आंसू छलक उठते हैं। उनका कहना था कि परदेस तो परदेस होता है। जब काम होता है तो सब मदद को तैयार होते हैं लेकिन काम निकलने के बाद उनकी कोई सुधि नहीं लेता। परदेस में जो अपमान व दुत्कार मिली है वे उसे भूल कर भी नहीं भूल पा रहे हैं। राजपुर तमेरी गांव के अनुज सिंह अनेक सपने संजोए कुछ महीने पहले ग्वालियर गए थे। टीवी मैकेनिक के तौर पर वहां 32 हजार रुपये प्रतिमाह कमाते थे। कोरोना संक्रमण काल में काम छूट गया। एक महीने ग्वालियर पड़े रहे, मालिक ने तनख्वाह नहीं दी तो और उल्टे पांव गांव लौट आए। पैदल छिपते-छिपाते 12 दिन में वह अपने गांव पहुंचे। रास्ते में पुलिस ने डंडे बरसाए। रोड किनारे एक गांव में पहुंचे तो ग्रामीणों ने दौड़ा लिया। रास्ते में किसी ने कुछ खिलाया तो खा लिया नहीं तो भूखे ही चलते रहे। तंगी के दिनों की याद कर सिहर उठते हैं। अब चाहे जो हो जाए, वह राज्य से बाहर नहीं जाना चाहते। सरकार यदि रोजगार दे या मदद करे तो अपने गांव में ही कमाएंगे। यहां मजदूरी का काम तो मिल जाता है मगर मैकेनिक की कद्र और मोल देने वाला कोई नहीं मिलने मिलता। गुरुग्राम से लौटे जसवंतनगर निवासी प्रवासी आशीष ने लॉकडाउन के दौरान की पीड़ा और जिदगी बचाने के लिए की गई मशक्कत की दर्द भरी दास्तान सुनाई। जिदगी के सबसे बुरे दौर और कभी नहीं भूलने वाले गम के साथ उसकी घर वापसी हुई है। गुरुग्राम में वह सूट साड़ी, पेंट्स शर्ट का कार्य करते थे। 25-30 हजार रुपये प्रतिमाह आराम से कमा लेते थे। गांव में मनरेगा मजदूरी करके अब गांव में ही खुश हैं। मत पूछो, हम किन-किन मुसीबतों से यहां आ सके। लॉकडाउन लगते ही मकान मालिक मकान खाली कराने पर अड़ गया। धीरे-धीरे जमा पूंजी खर्च हो गई। दाने-दाने को मोहताज हो गए। पैदल भी चले तो पुलिस ने कई बार लौटाया। भूखे-प्यासे 15 दिन में गांव लौटे। ऐसा खौफनाक मंजर कभी नहीं देखा। एक-दूसरे के बीच ऐसी दूरियां नहीं देखी। मददगारों ने मुंह मोड़ लिया। मानों साया भी साथ छोड़ गया हो। ग्राम पंचायत नगला तौर के अपने गांव घुरहा जाखन में अहमदाबाद से 10 मई को लौटे अशोक कुमार बताते हैं कि जब वह पहले गांव आते थे तो मां बाप और भाई सब खूब गले मिलकर प्यार दुलार करते थे लेकिन कोरोना संकटकाल में मन ही मन ऐसा महसूस कर रहे हैं कि जैसे अपने ही पराए हो गए। गांव में जो दोस्त पहले नौकरी से आने पर मिठाई व पार्टी देने की कहते थे वे भी अब दूर से ही हालचाल जानकर निकल लेते हैं। ये सब देखकर मन ही मन बहुत दुखी है और अपनों के बीच पराए हो गए हैं। गांव आकर मन बिल्कुल नहीं लग रहा है। क्योंकि कोई ढंग से बात भी नहीं कर रहा, चाहे वो घर हो या गांव के। गुजरात के राजकोट शहर में लोहे की ढलाई का काम करने वाले नगला तौर के ओमकार सिंह बताते हैं कि जो कुछ भी पैसा कमाया था, वह कुछ दिनों के लॉकडाउन में व रास्ते में किराये भाड़े में खर्च हो गए। अब कुछ भी नहीं। लेकिन गांव में अब किसी तरह समय कट रहा है। कुछ दिन शहर में और रुकते तो पास कुछ भी नहीं बचता और भूखों मरना पड़ता। गुजरात के बड़ौदा से लौटकर आए जाखन गांव के मोहनलाल बताते हैं कि वह पत्नी और बच्चों के साथ हलवाई का काम करते थे। लॉकडाउन लगा तब कुछ दिन तो आराम से कट गए। लॉकडाउन-2 में खाने पीने से लेकर अन्य परेशानियों का सामना करने लगे। जैसे-तैसे वहां से निकले तो रास्ते में बस वालों ने किराये के नाम पर जमकर लूटा। बड़ौदा से आगरा तक छह हजार रूपये किराया देना पड़ा। घर पहुंचने तक जेब खाली हो गई। घर आकर भी ऐसा महसूस हुआ मानो गैरों में आ गए हो।


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