रेडियो ने कहा इमरजेंसी लागू और मच गई अफरातफरी
सरस्वती शिशु मंदिर एवं गरुणपार स्थित जनसंघ कार्यालय में हुई थी छापेमारी देवरिया शहर में आंदोलनकारी पुलिस से बचने के लिए तलाशने लगे थे ठिकाना
जागरण संवाददाता, देवरिया : कभी समाजवादी नेताओं का गढ़ माना जाने वाला देवरिया आपातकाल के दंश आज भी अपने जेहन में समेटे है। 25 जून 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, शहर से लेकर देहात तक अफरातफरी मच गई थी। पुलिस आंदोलनकारी नेताओं को गिरफ्तार करने के लिए निकल पड़ी थी और सोशलिस्ट एवं जनसंघ से जुड़े नेता अपने छुपने का ठिकाना तलाशने लगे थे। बाजार बंद होने लगे थे और लोग घरों की और दौड़ पड़े थे।
शाम होते ही देवरिया शहर के अंसारी रोड स्थित सरस्वती शिशु मंदिर तथा गरुणपार स्थित जनसंघ कार्यालय और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्टेशन रोड स्थित कार्यालय पर पुलिस की छापेमारी हुई। इस दौरान कोई नहीं मिला, लेकिन रात में कुछ नेताओं को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इनमें अधिवक्ता परशुराम मणि, सोशलिस्ट नेता उग्रसेन सिंह, हरिकेवल प्रसाद, हरिवंश सहाय के अलावा जनसंघ के कद्दावर नेता कलराज मिश्र, दीनानाथ पांडेय, राजेंद्र किशोर शाही (प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही के पिता) शामिल थे। सभी को जिला कारागार में बंद किया गया था। आंदोलन के दौरान जेल के बाहर का मोर्चा संभालने वाले पूर्व विधायक रविद्र प्रताप मल्ल कहते हैं कि जब आपातकाल की घोषणा हुई बाजार में सन्नाटा छा गया। सभी लोग भूमिगत हो गए और पुलिस की छापेमारी तेज हो गई थी। जेल में होती थी सुनवाई
आंदोलनकारी बाहर न लाए जाएं, इसके लिए जेल में ही सुनवाई होती थी। जेल में बंद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक एवं अधिवक्ता परशुराम मणि त्रिपाठी आंदोलनकारियों की तरफ से जेल में आए न्यायिक अधिकारियों के सामने पैरवी करते थे, दोनों तरफ से बहस होती थी। जनसंघ के प्रदेश अध्यक्ष रविद्र किशोर एवं सोशलिस्ट नेता सुभाष के घर हुई कुर्की
आपातकाल के खिलाफ आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले जनसंघ के प्रदेश अध्यक्ष रहे रविद्र किशोर शाही एवं सोशलिस्ट नेता युवा सुभाष चंद्र श्रीवास्तव को जब पुलिस नहीं पकड़ पाई तो उनके घरों की कुर्की कर दी गई। दोनों नेता अलग-अलग तिथियों में पुलिस को छकाते हुए दीवानी कचहरी पहुंचे और न्यायालय ने उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया। जय गुरुदेव के अनुयायी भी हुए थे गिरफ्तार
सोशलिस्ट आंदोलनकारियों का नेतृत्व करने वाले नेता पूर्व विधायक सुभाष चंद श्रीवास्तव कहते हैं कि आपातकाल का दंश जीवन भर नहीं भूलेगा। जिस तरह उत्पीड़न किया गया, वह हमेशा याद रहेगा। पुलिस की लगातार छापेमारी ने आंदोलनकारियों और उनके परिवार वालों को झकझोर दिया था। दहशत का आलम यह था कि जेल में बंद आंदोलनकारियों से मिलने के लिए मां व पत्नियां ही जाती थीं। पता नहीं होता था, परिवार के पुरुषों को कब व कहां गिरफ्तार कर लिया जाए। बलिया के जेल में बंद किए गए थे मोहन सिंह
समाजवादी विचारक एवं सोशलिस्ट आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले युवा नेता इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष व देवरिया के सांसद रहे मोहन सिंह बलिया जिले में भूमिगत होकर आंदोलन को धार दे रहे थे। पुलिस ने उन्हें वहीं से गिरफ्तार कर बलिया जिला कारागार में बंद किया था। चिट्ठियां पढ़कर भेजी जाती थीं
जिला कारागार में बंद आंदोलनकारियों के पास आने वाली और उनकी भेजी जाने वाली चिट्ठियां सीधे नही जाती थीं। उन पर सेंसर लगा था। सारे पत्र पहले जेल प्रशासन के पास आते थे। चिट्ठियां पढ़ी जाती थीं, फिर आगे बढ़ाई जाती थीं। बद लिफाफे की चिट्ठियां भी खोलकर देखी जाती थीं। उस वक्त बलिया की जेल में बंद हुए मोहन सिंह ने देवरिया की जेल में बंद सुभाष चंद्र श्रीवास्तव को पोस्टकार्ड भेजा था, जिसमें हालचाल और कुशलक्षेम था।
छात्रों में भी था उबाल
उस वक्त मैं बीएचयू में पढ़ रहा था। छात्रों में जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के समर्थन में हास्टल में नारेबाजी हुई थी। बाजार में पुलिस का पहरा था, छात्रों ने थाने में जाकर बवाल किया था।
धनुषधारी ओझा, अधिवक्ता
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आपातकाल लागू होने के बाद पुलिस की सक्रियता बढ़ गई थी। हर वर्ग के लोग पकड़े जा रहे थे। लोगों में सरकार के प्रति गुस्सा था, लेकिन सब लोग सरकार के खिलाफ बात करने से डरते थे।
-राम लगन तिवारी, सेवानिवृत्त शिक्षक
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रेडियो पर आपातकाल लागू होने की घोषणा हुई तब मैं गांव में था। दूसरे दिन रुद्रपुर गया। हर तरफ गिरफ्तारी की चर्चा थी। धीरे-धीरे सरकार के प्रति गुस्सा बढ़ रहा था। लोग मांगलिक कार्यक्रम करने से कतरा रहे थे। डरते थे कि पुलिस किसी भी आंदोलनकारी को शामिल दिखाकर लोगों को गिरफ्तार कर सकती है।
गोरख सिंह, किसान ग्रामीण पुलिस के डर से बाजार नहीं आ रहे थे। सभी में डर था कि पुलिस आंदोलनकारियों के चक्कर में पकड़ न ले। छह महीने तक लोग बाजार नहीं आए। हम भी गांव में ही रहे।
रामजीवन गोंड, बौरडीह