कौमी एकता की मिसाल है लतीफशाह दरगाह
कर्मनाशा नदी तट पर स्थित बाबा लतीफशाह की पवित्र मजार जनपद की सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है। कौमी एकता के प्रतीक बाबा लतीफशाह का तीन दिवसीय ऐतिहासिक मेला आज शुक्रवार से प्रारंभ होगा। मेले की ऐतिहासिकता सैकड़ों वर्ष पुरानी है।
जासं, चकिया (चंदौली): कर्मनाशा नदी तट पर स्थित बाबा लतीफशाह की पवित्र मजार जनपद की सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है। कौमी एकता के प्रतीक बाबा लतीफशाह का तीन दिवसीय ऐतिहासिक मेला आज शुक्रवार से प्रारंभ होगा। मेले की ऐतिहासिकता सैकड़ों वर्ष पुरानी है।
¨हदू, मुस्लिम सद्भावना के बीज बोने वाले बाबा की चर्चाएं आज भी दूर दराज तक फैली हुई हैं। बाबा का पूरा नाम सैय्यद अब्दुल लतीफशाह बरी था। इरानी देश के बरी नामक शहर के किसी गांव में उनका जन्म हुआ था। बचपन में ही साकार ब्रह्म के तत्वज्ञान ढूंढने को वह सन्यासी बन गए। अकबर के शासन काल में कट्टर पंथ से परहेज किए जाने की बात सुनकर वे भारत आ गए। अजमेर शरीफ में ख्वाजा मुइमुद्दीन चिस्ती के तत्कालीन गद्दीनशी की सलाह पर वे काशी चले आए। प्रेम, सौहार्द, समरसता व धार्मिक प्रवृत्ति के चलते शिष्यों की एक बड़ी जमात खड़ी हो गई। बाद में वे कर्मनाशा नदी के किनारे आकर रहने लगे। बाबा वनवारी दास एवं लतीफशाह थे संत
कर्मनाशा नदी किनारे उसी स्थान पर बाबा बनवारी दास नामक ¨हदू संत भी रहा करते थे। वे बड़े ही तपस्वी और विद्वान थे। दोनों संत साथ-साथ ¨हदू, मुस्लिम एकता का संदेश देते थे। उनके न रहने के बावजूद दूर-दराज के लोगों में आज भी दोनों संतों के प्रति आगाध आस्ता है।
स्थापत्य कला से बनी है मजार
वर्ष 1793 में तत्कालीन काशी नरेश उदित नारायण ¨सह ने चकिया मां काली जी मंदिर का भव्य निर्माण कराना प्रारंभ किया तो उसी समय बाबा लतीफशाह की पक्की मजार का भी निर्माण स्थापत्य कला से कराया। हुबहु काली जी मंदिर की तरह दिखने वाला मजार आज भी मौजूद है। कहा जाता है कि किसी नदी किनारे यह पहली पक्की मजार है। मजार निर्माण के साथ ही लतीफशाह मेले की परंपरा काशी नरेश ने रखी जो आज भी कायम हैं।