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पंचकर्म में निरोगी काया का मर्म

By Edited By: Published: Sat, 13 Jul 2013 10:25 PM (IST)Updated: Sat, 13 Jul 2013 10:26 PM (IST)
पंचकर्म में निरोगी काया का मर्म

बुलंदशहर : जिंदगी है तो खासकर आज के माहौल में भागदौड़ और तनाव से चाहकर भी बच नहीं सकते। गंभीर बात तो यह है कि जीवन की धुरी होने के बाद भी आदमी स्वास्थ्य को छोड़कर बाकी सभी प्रकार की चिंताएं कर रहा है। बदले में भयानक बीमारियां मिल रही हैं। हास्पिटल और डाक्टरों की संख्या से ज्यादा रोग बढ़ रहे हैं। पैसा गंवाकर भी अच्छा स्वास्थ्य मिल जाए तो समझो नेमत है, मगर ऐसा हो नहीं रहा है। ऐसे में सब कुछ करके थक चुके बीमार तेजी से आयुर्वेद की शरण में पहुंच रहे हैं। इसकी पंचकर्म विधा जिले में भी जड़ें जमा रही हैं।

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औषधि की परिभाषा ही है कि वह रोग का निदान तो करे, मगर उसका कोई दुष्परिणाम न हो। आयुर्वेदाचार्यो के अनुसार, यह गुण सिर्फ आयुर्वेद की औषधियों में ही है। आयुर्वेद सभी रोगों की उत्पत्ति का कारण वायु, पित्त और कफ नामक त्रिदोष को ही मानता है। आयुर्वेद की पंचकर्म विधा आजकल ज्यादा प्रचलन में है। केरल में इसका प्रभाव ज्यादा है, जहां पर्यटक हजारों रुपये सुंदर और निरोगी काया के लिए पंचकर्म पर खर्च करते हैं। जिले में भी अब लोग इसकी ओर उन्मुख हो रहे हैं।

क्या है पंचकर्म

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है पंचकर्म में पांच चिकित्सीय क्रियाएं होती हैं। वमन, विरेचन, बस्ति, नस्य और रक्तमोक्षण कर्म। आयुर्वेदाचार्य डा. हितेष कौशिक बताते हैं कि पंचकर्म क्रिया द्वारा शरीर के विषाक्त द्रव्यों का शोधन किया जाता है। इसके बाद औषधि ज्यादा प्रभावी तरीके से काम करती है। सारांश में कहें तो जैसे जड़ निकालने से पेड़ का समूल नाश हो जाता है, उसी तरह पंचकर्म से रोग का समूल नाश होता है और बेहतर सेहत मिलती है।

पंचकर्म से पहले

पंचकर्म से पहले कुछ और क्रियाएं होती हैं, जिन्हें पूर्व कर्म कहा जाता है। प्रधान कर्म अर्थात पंचकर्म के पहले तैयारी के लिए पूर्व कर्म कराना अत्यावश्यक है। इसमें सर्वप्रथम स्नेहन (शरीर में चिकनाई लाना) कराने के बाद स्वेदन (पसीना बहाना) कराया जाता है। वाह्य स्नेहन के रूप में शिरोधारा पूरे विश्व में पंचकर्म का जाना-पहचाना नाम है। इसमें एक वर्तन में औषधीय तेल लेकर उसकी धारा बनाकर सिर पर निश्चित अवधि के लिए डाला जाता है। इसके बाद स्वेदन होता है, जिसके कई प्रकार हैं।

पंचकर्म का विश्लेषण

वमन : दोषों को ऊपर के मार्ग अर्थात मुख से बाहर निकालना वमन कहलाता है। यह मुख्यत: नये बुखार, दस्त, रक्तपित्त, टीबी, चर्म, प्रमेह, अपच, ग्रंथि, मानसिक रोग, खांसी, श्वांस, जी मिचलाना, विसर्प, स्तन्य (मां के दूध के रोग), थायराइड, गले के रोग और कफज रोगों आदि में कराया जाता है।

विरेचन : दोषों को नीचे के मार्ग (गुदा) द्वारा बाहर निकालना विरेचन कहलाता है। गुल्म, अर्श, चर्म, झाई, कामला, पुराना बुखार, उदर, उल्टी, प्लीह, नेत्र, योनि, शुक्र, पेट, कृमि, घाव, वातरक्त, मूत्राघात, कुष्ठ, मलग्रह, प्रमेह, मानसिक, खांसी, श्वांस व थायराइड आदि रोगों में यह कर्म कराया जाता है।

बस्ति : यूरिनरी ब्लेडर (मूत्रमार्ग) के द्वारा किए जाने वाले कर्म को बस्ति कहते हैं। गुल्म, आनाह, वातरक्त, प्लीह, पुराना बुखार, जुकाम, अस्थि, शूल, अतिसार, शुक्र का रुकना, वायु और मल का रुकना, मासिक धर्म का न होना आदि भयंकर वायु रोगों में यह क्रिया होती है। बस्ति को काय चिकित्सा के क्षेत्र में आधी चिकित्सा माना जाता है। कारण, यह वायु दोष को नियंत्रित करती है और वायु के बिना कफ व पित्त दोष कुछ नहीं कर सकते।

नस्य : नाक सिर का द्वार है। जिस चिकित्सा में नाक द्वारा औषधि दी जाए, उसे नस्य कहते हैं। यह क्रिया मुख्य रूप से शिर:शूल, सिर का भारीपन, नेत्र, गला, सूजन, गलगंड, नासाशोष, मुखशोष, सिर में कीड़ा, ग्रंथि, कुष्ठ, मानसिक, पीनस, माइग्रेन, सरवाइकल, स्पोंडिलाटिस, झाई, बालों के रोग और नेत्र के चारों ओर सिराओं के उभरने आदि जैसे रोगों में की जाती है।

रक्तमोक्षण : दूषित रक्त को शरीर से बाहर निकालने की क्रिया को रक्तमोक्षण कहते हैं। सभी प्रकार के चर्म रोग, गांठ, सिराग्रंथि, सूजन, विसर्प, मस्से, नीलिका, तिल, झाई, प्लीह, गुल्म, वातरक्त, अर्श, अबुर्द व रक्तपित्त आदि में यह चिकित्सा की जाती है।

पंचकर्म के फायदे

- व्याधि ठीक होकर स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

- शरीर में रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ती है।

- शरीर के दूषित, विषाक्त पदार्थ बाहर निकल जाते हैं।

- इंद्रियां, मन, बुद्धि व रूप-रंग अच्छा होता है।

- बल व वीर्य की वृद्धि होने से पौरुष शक्ति बढ़ती है।

- बुढ़ापा देर से आता है।

- दीर्घायु की प्राप्ति होती है।

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