फतवे का सफर इमरजेंसी के दौर से लेकर निदा खान तक
दौर बदला तो बहुत कुछ बदलता हुआ दिख रहा है। इमरजेंसी के दौरान मुफ्ती-ए-आजम ¨हद के फतवा से सरकार हिल गई थी, लेकिन अब फतवा पर बखेड़ा खड़ा हो गया।
जेएनएन, बरेली। दौर बदला तो बहुत कुछ बदलता हुआ दिख रहा है। इमरजेंसी के दौरान मुफ्ती-ए-आजम ¨हद ने जब नसबंदी के खिलाफ फतवा दिया तो देशभर के ज्यादातर मुस्लिम मरकज से हिमायत हुई थी। दावा किया जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी हस्तक्षेप करना पड़ा था। अब दरगाह का एक और फतवा सुर्खियां बना हुआ है लेकिन, हिमायत के बजाय बखेड़ा हो रहा है। अल्पसंख्यक आयोग की टीम जांच को आ गई और उसके सामने उलमा को अपने बयान दर्ज कराने पड़े।
दरगाह का यह फतवा आला हजरत हेल्पिंग सोसायटी की अध्यक्ष निदा खान के खिलाफ है, जो आला हजरत खानदान की पूर्व बहू हैं। उन पर इल्जाम है कि उन्होंने हलाला को लेकर कानून-ए-शरीयत के खिलाफ बयान दिया है। तौबा नहीं मांगने पर उनसे तमाम तरह के ताल्लुकात तोड़ लिए जाने का फरमान जारी किया गया था। यह फतवा देशभर में सुर्खियां बन गया। विरोध में तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं आने लगीं। निदा भी फतवे के खिलाफ मजबूती से खड़ी हो गईं। कह दिया कि तौबा नहीं मांगेंगी। इसलिए क्योंकि शरीयत की नाफरमानी नहीं की है। तौबा तो फतवा जारी करने वाले उलमा को मांगना चाहिए। फतवे का विवाद तूल पकड़ा तो अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष तनवीर हैदर उस्मानी ने स्वत: संज्ञान लेते हुए जांच के लिए दो सदस्य टीम गठित करके बरेली भेज दी। जांच टीम में शामिल आयोग की सदस्य रूमाना सिद्दीकी ने बताया कि शहर काजी मौलाना असजद रजा खां कादरी का कहना था कि फतवे में निदा का नाम नहीं है। टीम ने मीडिया को फतवा जारी करने वाले शहर इमाम मुफ्ती खुर्शीद आलम के भी बयान लिए। रूमाना सिद्दीकी के मुताबिक, उलमा ने फतवे पर सफाई दी है। बहरहाल, इमरजेंसी के दौर से लेकर अब तक गुजरे वक्त का फासला बदलाव की बानगी बयां कर रहा है। इसका प्रमाण निदा खान हैं, जो फतवे को मानने के बजाय डटकर इंसाफ के लिए लड़ने को खड़ी हैं।