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Jagran Special : पर्वतीय लोक संस्कृति के सौन्दर्य का केंद्र है बरेली Bareilly News

शहर में रहने वाले पर्वतीय समाज का बरेली से आत्मीय जुड़ाव इतना गहरा है कि उत्तराखंड बनने के बाद भी वे यहीं के होकर रह गए।

By Abhishek PandeyEdited By: Published: Sat, 11 Jan 2020 08:11 PM (IST)Updated: Sat, 11 Jan 2020 08:11 PM (IST)
Jagran Special : पर्वतीय लोक संस्कृति के सौन्दर्य का केंद्र है बरेली Bareilly News

अविनाश चौबे, बरेली : देवभूमि उत्तराखंड का प्रवेश द्वार कहा जाने वाला बरेली शहर पहाड़ों का आंगन भी है। इस शहर के परिवेश में पर्वतीय लोक संस्कृति का सौंदर्य इस कदर रचा-बसा है कि पिछले 26 वर्षों से यहां लगने वाला ‘उत्तरायणी मेला’ यहां का सबसे बड़ा मेला बन चुका है। इस साल यह मेला 13 से 15 जनवरी तक बरेली क्लब के मैदान में लगेगा। शहर में रहने वाले पर्वतीय समाज का बरेली से आत्मीय जुड़ाव इतना गहरा है कि उत्तराखंड बनने के बाद भी वे यहीं के होकर रह गए। बरेली में रचे-बसे, पले-बढ़े और सजे पर्वतीय समाज पर केंद्र‍ित रिपोर्ट। 

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हर के डेलापीर चौराहे से आगे पीलीभीत रोड पर कूर्मांचल नगर आबाद है। कुमाऊंनी सांस्कृतिक परिवेश को यहां बसे पर्वतीय समाज के लोगों ने जीवंत कर रखा है। यह शहर में बनी पर्वतीय समाज की सबसे बड़ी विकसित आवासीय कॉलोनी है। यहां पहाड़ी समाज के तीन सौ से अधिक परिवार रहते हैं। पर्वतीय समाज सहकारी आवास समिति के सचिव महेश चंद्र खर्कवाल बताते हैं कि पहाड़ों से सटा सबसे विकसित शहर होने के नाते सदियों से पहाड़ी समाज के लोगों का बरेली से जुड़ाव बना हुआ है।

शहर में पर्वतीय समाज के लोगों की संख्या करीब डेढ़ लाख है। हालांकि कूर्मांचल नगर के रूप में अपनी कॉलोनी बनाने का विचार वर्ष 1984 में साकार हुआ। खर्कवाल बताते हैं कि समिति पंजीयन के समय वह इसके मुख्य सलाहकार थे। कॉलोनी पंजीयन के समय यहां कुल 102 सदस्य थे। उन्होंने बताया कि उप्र में अन्य कई शहरों में भी कूर्मांचल नगर बसा, लेकिन सबसे व्यवस्थित कॉलोनी बरेली शहर में ही है।

यहां कॉलोनी का अपना मंदिर और कम्युनिटी हॉल आदि सभी कुछ है। यह तो हुई कूर्मांचल नगर की बात, पर शहर के लगभग सभी आवासीय इलाकों में पर्वतीय समाज से जुड़े लोग रचे-बसे हैं और बरेली उनका अपना शहर है। अंग्रेजों ने बरेली को ‘गेटवे ऑफ हिल्स’ नाम दिया पर पर्वतीय समाज के लोग इस शहर से इतना स्नेह करते हैं कि बरेली को अपने ‘घर की देहरी’ कहते हैं।

समाज से जुड़े पुराने लोग बताते हैं कि पर्वतीय जीवनशैली आज भी काफी मुश्किलों भरी है। पुराने समय में वहां रोजगार के अधिक साधन नहीं थे, तो ऐसे में पहाड़ की युवा पीढ़ी ने रोजगार की तलाश में घर से बाहर पहला कदम रखा। बरेली शहर ने न सिर्फ उनको रोजगार दिया, शिक्षा दी बल्कि वह प्यार और अपनापन भी दिया, जिसकी तलाश घर से दूर रहने वाले लोगों को होती है। यही वजह रही कि पहाड़ से आने वाले लोग भी यहीं के होकर रह गए। जिस तरह से शहर ने पर्वतीय समाज को स्वीकार किया, बिलकुल वैसे ही पर्वतीय समाज ने हमेशा से शहर को दिल से प्यार किया।

उत्तराखंड बनने के बाद भी कम नहीं हुआ प्यार: आजादी से पहले और बाद तक उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का अभिन्न हिस्सा रहा। अलग राज्य की मांग को लेकर लंबे समय तक आंदोलन चला, जिसमें शहर में रहने वाले पर्वतीय समाज के लोगों ने भी प्रतिभाग किया। उन्होंने न सिर्फ अलग राज्य की मांग बुलंद की, बल्कि बरेली को भी उत्तराखंड में शामिल करने की मांग रखी।

वर्ष 2000 में उत्तराखंड बनने के समय भले ही शहर को उसमें शामिल नहीं किया गया, लेकिन यहां रहने वाले पर्वतीय समाज के लोगों का पहला प्यार यही शहर रहा। यही कारण है कि अलग राज्य बनने के बावजूद सरकारी अफसरों को छोड़कर अन्य समाज ने यहां से रिश्ता खत्म नहीं किया।

सूबे को दिया पहला मुख्यमंत्री : आजादी के बाद हुए चुनाव में उत्तर प्रदेश को पहला मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के रूप में पर्वतीय समाज से ही मिला। वह भी बरेली से चुनाव लड़कर जीते और विधानसभा पहुंचे। उप्र और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री एनडी तिवारी का भी बरेली से नजदीकी रिश्ता रहा। उनके साले डॉ. पीसी सनवाल बरेली में ही रहते थे, जो कि आइवीआरआइ में कार्यरत थे। दस वर्ष पूर्व वह लखनऊ में शिफ्ट हुए।

1964 में अस्तित्व में आई गढ़वाल सभा: पर्वतीय समाज के बाद दूसरा संगठन गढ़वाल सभा अस्तित्व में आया। अध्यक्ष अशोक बोखंडी ने बताया कि यह संगठन 1964 में बना। पहले अध्यक्ष गोवर्धन प्रसाद सिंह काला रहे। दस वर्ष पहले तक बरेली क्लब के मैदान में संगठन प्रतिवर्ष रामलीला कराता था। बाद में रामलीला बंद हो

गई। 


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