इंटरनेट की दुनिया से परे किताबों का जहां
विश्व पुस्तक दिवस -शिक्षा और आबादी बढ़ने के बाद भी थम गया पाठकों का कारवां -अब ई-बु
जागरण संवाददाता, बरेली : मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले से अंग्रेजी के प्रोफेसर पुरुषोत्तम वाजपेयी सिंडीकेट बुक हाउस में अंग्रेजी साहित्य की एक दिलचस्प किताब की तलाश में पहुंचे, जिसकी कहानी सधी हुई हो। सोमरेट मोघम उनके पसंदीदा लेखकों में शुमार हैं। प्रो. पुरुषोत्तम कहते हैं कि किताबों की खुशबू का एहसास इंटरनेट पर नहीं मिलता है। मैं, लगातार पढ़ता हूं, किताबें न हों, तो बैचेनी सी होती है। प्रो. पुरुषोत्तम रुहेलखंड विश्वविद्यालय में कॉपी जांच रहे हैं।
किताबों के प्रति युवा पीढ़ी का कैसा रुझान है? इस सवाल पर सख्त लहजे में जवाब देते हैं, कि युवा मोबाइल पर भटक गए हैं। दूसरी बात यह है कि आज के लेखकों की किताब में कहानी बांधने वाली नहीं मिलती, बल्कि टेक्नोलॉजी का अक्स ज्यादा दिखता है। एमबीए के मुहम्मद नबी प्रबंधन की किताब लेने पहुंचे। वो कहते हैं कि पीडीएफ डाउनलोड कर पढ़ने में मजा नहीं आता है। पढ़ने से जल्द मन ऊब जाता है। पाठकों का नहीं बढ़ा दायरा
करीब 40 साल से शहर को देश-दुनिया की किताबें उपलब्ध करा रहे सिंडीकेट बुक हाउस की संतोष वर्मा कहती हैं कि पाठक घटे नहीं हैं, बल्कि उनका तादाद थम गई है। दस साल पहले के पाठकों की तुलना करें तो आज भी हमारे यहां उतने ही पाठक आते हैं। कुछ रेगुलर पाठक घटे हैं, तो नये बढ़े हैं, जबकि आबादी और शिक्षा का स्तर बढ़ने की वजह से पाठक बढ़ने चाहिए थे। ऐसा नहीं हुआ। हमारे यहां हर वर्ग के पाठक आते हैं। हर क्षेत्र की किताबें भी हैं। कोई विशेष लेखक की खास प्रति की बढ़ी डिमांड नहीं दिखती।
इंटरनेट से पढ़ने में वो मजा नहीं
सिविल की तैयारी कर रहे मुहम्मद नदीम ने पढ़ाई के लिए इंटरनेट का सहारा लिया। जल्द ही वो इससे ऊब गए। नदीम कहते हैं कि इंटरनेट से किताब डाउनलोड कर पढ़ने में थकावट होती है, जबकि किताब से पढ़ने में दिलचस्पी पैदा होती है। नौजवान किताबों से करें मुहब्बत
बरेली कॉलेज में ¨हदी के विभागाध्यक्ष डॉ. एसपी मौर्य का मानना है कि युवाओं की साहित्य में रुचि बढ़ रही है। कवि सम्मेलन, मुशायरों की जो रंगत फीकी पड़ी थी वो बढ़ने लगी है। नौजवान इंटरनेट पर पढ़ते हैं, मगर पढ़ने का ये शौक किताबों से डालने की जरूरत है। इंटरनेट पर सतही तौर पर पढ़ लेते हैं। मगर किताब को पूरी शिद्दत के साथ पढ़ा जा सकता है। डिजिटल में बदले पत्र-पत्रिकाओं के पाठक
रोडवेज बस अड्डे पर 30 साल से किताबों का स्टॉल लगा रहे राजेंद्र कहते हैं कि आज का पाठक डिजिटल में ढल गया है। एक दौर था मैं 16 हजार रुपये स्टॉल का किराया चुकाता था। आज उतने की बिक्री नहीं होती।
किताबों को बनाएं दोस्त
-बरेली कॉलेज की एसोसिएट प्रोफेसर वंदना शर्मा कहती हैं कि लाइब्रेरी में लाखों किताबें हैं। विद्यार्थी अपने कॉलेज के पुस्तकालय में घंटा-दो घंटा रोजाना बैठकर पढ़ने की आदत डालें। किताबें ही आपकी जिंदगी की सबसे अच्छी दोस्त बन सकती हैं।