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18 साल की दुश्वारियों के बाद लौटी खुशियां

जागरण संवाददाता, बांदा : अठारह साल में हर वक्त ठोकरें खाती ¨जदगी और उम्मीदों में बंधे कम

By JagranEdited By: Published: Fri, 08 Dec 2017 03:01 AM (IST)Updated: Fri, 08 Dec 2017 03:01 AM (IST)
18 साल की दुश्वारियों के बाद लौटी खुशियां

जागरण संवाददाता, बांदा : अठारह साल में हर वक्त ठोकरें खाती ¨जदगी और उम्मीदों में बंधे कर्मचारियों के चेहरे की मुस्कान अब कम होने का नाम नहीं ले रही है। करीब दो दशक तक कानूनी लड़ाई के बाद शासन ने बतौर उन्हें सरकारी कर्मचारी माना। इन्हीं में पांच को आरटीओ में तैनात किया गया है। बातचीत में घरों की माली हालत और मुसीबत की दास्तान के बीच उनके आंखों के आंसू दर्द को समझाने के लिए काफी हैं। अब उन्हें विश्वास है कि जिस संघर्ष से लड़कर इस मुकाम को हासिल किया, तो जल्द ही किस्मत करवट ले लेगी।

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मिर्जापुर जिले के चुनार कस्बा स्थित सरकारी सीमेंट फैक्ट्री में सैकड़ों कर्मचारी काम करते थे। लेकिन तत्कालीन सरकार ने 1999 में कंपनी को बीमार बताकर अचानक बंद कर दिया था। जिससे सभी कर्मचारी सड़क पा आ गए थे। बेरोजगारी के कारण कर्मचारी के परिवार आर्थिक तंगी से जूझने लगे। कुछ कर्मचारियों ने वर्ष 2001 में हाईकोर्ट का दर?वाजा खटखटाया। करीब आठ साल की लड़ाई के बाद हाईकोर्ट ने सरकार के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कर्मचारियों की मांग को खारिज कर दिया। आखिर 2010 में कर्मचारियों ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दे दी। नौ सितंबर 2015 को कर्मचारियों के घर खुशियां आईं। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कर्मचारियों को तैनात करने के निर्देश दिए थे। बावजूद तैनाती न मिलने पर कर्मचारियों ने फिर अवमानना की अपील की। जिस पर 22 नवंबर को उन्हें विभिन्न जिलों में तैनात किया गया है। आरटीओ विभाग में भेजे गए पांच कर्मचारियों ने बताया कि करीब 18 साल की उठापटक के दौरान वह और उनके परिवार ने हजारों मुसीबतें झेली हैं। आय का कोई साधन नहीं था। उन्होंने और बच्चों ने पढ़ाई छोड़कर दो वक्त की रोटी का इंतजाम किया है। हालांकि इस बात का मलाल है कि अभी तक उन्हें कोई धनराशि नहीं मिली है।

इनसेट.

क्या कहते हैं कर्मचारी

- जिस दिन उन्हें नौकरी से निकाला गया था, वह सड़क पर आ गए थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। पांच छोटे छोटे बच्चे थे। कुछ दिनों तक भटकने के बाद मजदूरी का विकल्प था। आर्थिक मजबूरियों के कारण बच्चों की पढ़ाई भी अधूरी छूट गई। कोई पांच तो कोई कक्षा आठ तक ही पढ़ सका। किसी प्रकार बच्चों की शादी कर दी है। लेकिन एक बार ईश्वर ने फिर उनके घरों में खुशियां दी हैं। - कन्हाई, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, महतू, जिला पलागू झारखंड

- पति की मौत के बाद उन्हें फैक्ट्री में बतौर मस्टररोल पद पर नौकरी मिली थी। छोटे-छोटे दो लड़के और एक लड़की थी। अचानक नौकरी छूटने के बाद बच्चों को दो वक्त की रोटी का इंतजाम कराना मुश्किल पड़ गया था। धीरे धीरे बड़े बेटे ने जिम्मेदारी संभाली। वह और बेटा अतुल प्राइवेट नौकरी करते। तब जाकर घर का खर्च चलता था। कुछ पैसे इकट्ठे कर बेटी की शादी की। अब स्थितियां फिर बदली हैं। - मंजू देवी, नई बस्ती बखियाबाद चुनार, मिर्जापुर

- दो बेटे और दो बेटियां हैं। नौकरी छूटने पर मजदूरी कर पढ़ाता गया। बेटे प्रदीप ने बीटेक के कंप्टीशन को पास किया, लेकिन रुपए न होने पर उसने पढ़ाई छोड़ दी। सभी बच्चों ने आधी अधूरी पढ़ाई की। अदालत से लौटते वक्त ट्रेन से उतरते समय उसका पैर भी टूट गया था। घर में हजारों परेशानियां थी। उस पर पांच लाख रुपए तक का कर्ज हो गया था। अब नौकरी मिली है, उम्मीद है कि जल्द ही वेतन के साथ स्थितियां भी बदलेंगी। - रामनारायण वाचमैन, नुवांव, चुनार मिर्जापुर

- एक बीघा जमीन नहीं थी। नौकरी छूटने के बाद सिर्फ मजदूरी ही पेट भरने के लिए रास्ता बचा था। दो बेटे और दो बेटियां हैं। मिर्जापुर शहर में निजी मकान था। उसी में रहकर बच्चों की पढ़ाई कराते गए। ऐसा कई बार वक्त आया जिसमें आत्महत्या तक के ख्याल आए। लेकिन समय गुजरता गया और अब नौकरी मिली है। कोर्ट ने नौकरी छूटने से अब तक 40 फीसद धनराशि देने के निर्देश दिए हैं साथ ही पेंशन। - ज्ञान चंद्र, दुमदुमा लिपिक, वीआईपी रोड, चुनार मिर्जापुर

- जैसे ही नौकरी छूटी तो परिवार पर पहाड़ टूट पड़ा था। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि करीब सत्रह साल की नौकरी के बाद अब कहां और किसकी नौकरी करेंगे। दो बेटियां और एक बेटा है। पूरे परिवार की जिम्मेदारी थी। सभी मुझ पर आश्रित थे। मजदूरी कर समय बढ़ता गया। मुसीबतें आईं और फिर लौट गईं। किसी प्रकार कर्ज लेकर बेटियों की शादी कर दी। बेटा अब भी पढ़ रहा है। समय बदला और फिर घर में खुशियां आई हैं। - सुभाष चंद्र लिपिक, जमुई बाजार, मिर्जापुर


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