खिचड़ी तो पक रही लेकिन जनता को नहीं मिल रहा स्वाद
मकर संक्रांति एक त्योहार है। परंपरा के तहत इस त्योहार पर चिउरा गुड, दही के अलावा खिचड़ी भी खाया जाता है। लेकिन अब तो इस खिचड़ी का राजनीति में भी काफी महत्व हो गया है। नागरिक अपने दरवजे पर बैठकर राजनीति में पक रही खिचड़ी पर सोच रहा था। उसके मन राजनीति में दिल्ली से लेकर यूपी तक पक रही खिचड़ी को लेकर तरह-तरह के बात आ रहे थे।
मकर संक्रांति एक पर्व है। परंपरा के तहत इस पर्व पर चिउरा गुड़, दही के अलावा खिचड़ी भी खाया जाता है ¨कतु अब तो इस खिचड़ी का राजनीति में भी काफी महत्व हो गया है। नागरिक अपने दरवाजे पर बैठकर राजनीति में पक रही खिचड़ी पर विचार मग्न था। उसके मन में दिल्ली से लेकर यूपी तक पक रही राजनीति की खिचड़ी को लेकर तरह-तरह के विचार आ रहे थे। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह खिचड़ी अभी और कितनी पकेगी और कितनी आंच पर.. तभी उसकी पत्नी घर के अंदर से तेज आवाज दी।
अजी सुनते हैं खिचड़ी का त्योहार अब एक दिन बाकी है, अभी तक चिउरा तक खरीदें। वह नागरिक की कमीज, गमछा व हाथ में झोला लेकर उसके पास आ जाती हैं। इस पर नागरिक धीरे से लंबी सांस लेते हुए चौकी से उतरता है। कमीज पहनते हुए कहता है.. लाओ झोला दो, अब तो खिचड़ी ही पक रही है। देखा जाए इसका स्वाद जनता को कैसा लगता है। इसके बाद वह सड़क तक आता है तो वहां भीरु व भैया लाल मिल जाते हैं।
कहते हैं कि अरे भाई झोला लेकर का चल दिए। इस पर नागरिक कहता है कि बाजार से खिचड़ी का सामान लेने जा रहा हूं। इस पर भीरु व भैया लाल भी साथ चले देते हैं। बाजार में खिचड़ी की भीड़ और घर में माताओं की ओर से पहले बनाए जाने वाले तिलवा व अन्य सामान को बिकता देख वह सोच में पड़ जाता है। कहता है, यार क्या जमाना हो गया है। पहले दादी व माताएं अपने हाथों बनाती थीं.. कितना स्वादिष्ट होता था। अब यह भी बिकने लगा। इस पर भीरु बोलता है कि अब कहीं घर में कहां गुड़ का सुगंध आती है। पहले पता चल जाता था कि किसके घर में पहले तिलवा व मेथी बनल बा। लोग मांग के खाते भी थे लेकिन अब तो खरीद कर आ रहा है किसी को पता भी नहीं चल पाता। तभी नागरिक को लखनऊ में पक रही खिचड़ी याद आ गई और लंबे समय बाद दो दलों के बीच पकी खिचड़ी की बात सोचकर मन ही मन मुस्कुराने लगा। सामान की खरीददारी करने के बाद नागरिक चाय की दुकान पर जाता है। वहां पर कहता है कि बताओ यार खिचड़ी तो इन राजनीतिक लोगों के लिए अच्छा मिल गया है। खिचड़ी का आयोजन कर सभी को बुला ले रहे हैं और अपना मकसद पूरा कर ले रहे हैं। लखनऊ में दो दल आपस में खिचड़ी पका लिए। अब तो जिले स्तर पर भी खिचड़ी का आयोजन होने लगा है।
दुकानदार बोलता है, खिचड़ी तो बहाना है.इन राजनीतिक लोगों को तो वोट साधना है। नागरिक कहता है कि चुनाव नजदीक आते ही नेताओं को खिचड़ी याद आ गई। मौसम की तरह यह भी त्योहारों का उपयोग करना जानते हैं। बस इन्हें मौका मिलना चाहिए। इन नेताओं की खिचड़ी उन्हें मुबारक, आमजन को तो अभी इसका स्वाद नहीं मिल रहा है। इतना कहकर नागरिक आगे बढ़ जाता है।
-एक नागरिक